अनिल मल्लिक, बिराटनगर।
गीत
एकटा
काल खण्ड, एतहि जिलौं हम
यथार्थक
हलाहल, एतहि पिलौं हम
मेटायल
तृष्णा, यश मान धनक
ओह!
क्षुधा कहाँ मेटाएल, हमर मनक
यतऽ चिक्कन रस्ता,
वातानुकुलित अट्टालिका, गतिशील सभ किछु
ओतऽ खरंजा, खपड़ा, कड़गर धुपमे ठाढ़ ताड़क
गाछ, आर नै किछु
शर्द
सीसा, उच्छवाशक भाफ सियाही, आंगुर
अछि कलम
अहिना
महिशारीसँ मेलबॉर्न यात्रा, लिखैत मेटबैत छी हम
दिग्भ्रमित
उदिग्न मन नै अछि, आब स्पष्ट अछि, करब कि
एहन
करब, मातृ
ऋण सँ उऋण भऽ जाएब, बेसी हम कहब कि
विरक्त भऽ आएल छलहुँ,
भेटल दुनियाँ रंग बिरंगी
पएलहुँ एतहि हुनको, पग पग साथ दैत जीवन संगी
चुपचाप
देखैत रहैत छलथि, असगरे अपनासँ लड़ैत हमरा
कि
भेलै नै जानि, कखैन ओ एलथि, देलथि कन्हाक सहारा
अश्रुपुरित, बाजि उठलथि धीरे सँ, आब चलू केओ यतए रहए तँ रहौ
पलटि कऽ हम देखलहुँ हुनका, चमकि उठल बच्चा जकाँ आँखि.. ओहो!
मेघाच्छादित
भादब मास, घुप्प अन्हार, जेना भेल अचानक प्रकाश चहुँओर
हजारो
चिड़ैकेँ एकसाथ चिड़बिड़ चिड़बिड़, जेना भऽ रहल होइ नव जीवन भोर
बहुत
भेल, पिअब नै ई चमकैत हलाहल, आब पिअब अमृत प्याला
मन
मलङ्ग अछि, चललहुँ हम सभ, बजा रहल प्रेमक मधुशाला
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