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Tuesday, April 10, 2012

जीवकान्त- जन-जन याचक



अगिते देखल सूर्य
तरणिसँ माँगल थोड़ प्रकाश
कहलनि-मुट्ठी बान्हि ठाढ़ रह
अपनहु करहि प्रयास’’
मुट्ठी तँ भरि गेल
खोलि कए देखी अति उत्साह
जते हजीरिया तते अन्हसरिया
दूनू धार प्रवाह
माँगल धरतीसँ हम याचक
अन्नल-फलक भंडार
गाछ फड़ल बड़
आगाँ देखी आधा खाली थार
नदी देखि कए भेल खुशी तँ
माँगल आँजुर पानि
बैसक्खाँमे बालु उड़ाबए
भादवमे नकमानि
लत्ती-लत्ती बहुत हरियरी
कोँढ़ी होइत फूल
फूल-कुंजमे समय बिताबी
तृष्णा  लाल अढ़ूल
हवा उड़ाबए खढ़क खण्डकेँ
तहिना भासल जादू
बहुत डारिपर
बहुत फूलकेँ सिहरन नहि बिसराइ
कहल देशकेँ-
दैह सुरक्षा, घूमी जंगल-झाड़
घर-घुसनाकेँ नोति बजाबए
सागर आर पहाड़
रहलहुँ सभतरि निष्कण्टक भए
गड़ल ने कूशक काप
बन्न  कोठलीमे चेहाइत छी
भरि घर सापे-साप
देशो माँगइ-
नित्य करी हम सभ जन बाट प्रशस्त
बहिर भेल किछु, सुनि नहि पाबी
अपन स्वार्थमे मस्त
कहियो माँगए धार-धरित्री
कहियो गगनक छोर
किछु नहि सुनलहुँ
जतबो सुनलहुँ
देल ने हृदय कठोर
श्री गणेशाय नम:
कुल देवताभ्योम नम:, ग्राम देवताभ्यो नम:,
सर्वोभ्यो देवभ्योनम:, सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:,
सर्वेभ्यो गुरुवेभ्यो नम:।
ऊँ शक्ति-ऊँ..........

जीवकान्त - वनदेवी



वनवासिनी स्त्री जंगलमे
भोजन तकबा लेल बौआइत अछि
झाँखुरमे पकड़ए चाहैए बटेर
बिछैए जंगली करैल आ खम्हारु
थोड़ेक जारनिक काठ जमा करैए

क्यो चिमनी ईंट भट्ठापर
पजेबा उघैए आ बोनि कमाइए
चुल्हि जरैत छैक बहुत नियारसँ
मुदा मिझाइत छैक पट दए

हाथ धरबा लेल कम मर्द उपलब्ध छैक
शहर दिस गेल जुआन नहि घुरलैए
रिक्शा घिचबाक बोरा उतारबाक जानमारू काजमे
बहुत पसेनाकेँ थोड़ कैंचा भेटैत छैक

वनवासिनी स्त्री सेहो छोड़ने जाइए वन
शहरमे सड़कपर राति कटबा लेल
आ दिनमे हवेलीमे झाड़ू-पोछा देबा लेल...
शहर ओकरा चिबा कए सुता दैत छैक
ओकर खून चाटि कए नेहाल होइत छैक
शहरक मोटरमे
तेल जकाँ जरैत अछि वनवासीजन
शहरक आकाशमे
ओ डीजिलक धुआँ जकाँ बिलाइत अछि

बाघक प्रजाति उपटैत छैक
तँ चिन्ता घेरैत अछि जनमानसकेँ
अंडमानसँ लोहरदग्गा धरि
आ उजानक मुसहरीसँ नट्टिन सभक सिड़की धरि
उपटैत अछि वनवासी स्त्री-पुरुष
अगबे बसात रोदना करैए सुतली रातिमे
पहाड़मे गन्हाइत धार नोर बनि टघरैत अछि
बबुआन सभक करेज दिल्लीसँ चतरा धरि
पथर-कोइलाक खण्ड जकाँ सर्द अछि
(३०.०६.२००९)