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Wednesday, May 20, 2015

व्‍यथित तरू आ हेरा गेल (कवि- राजदेव मण्‍डल)

कविता-  
(१) व्‍यथित तरू
:: राजदेव मण्‍डल
चारूभर तरू ताकि रहल
जनकल्‍याणक भाव भरल
निच्‍चाँमे कुरहड़ि चमकि रहल
रहि-रहि कऽ ओ बमकि रहल।

नि:सृत होइत मन्‍द-मन्‍द
धेरि रहल अछि मृत्‍युक गंध
डरे थरथराइत भेल लाचार
मने-मन करैत विचार।

कोन पापक वा अभिशापक
भेटि रहल अछि ई फल
नइ अछि हमरा विरोधक बल
छोड़त नहि ई निर्दय खल।

भेल छी सर्द
हृदैमे दर्द
आँखिमे भरल नोर
केकरा लगबै गोड़
काटत हमरा खण्‍ड–खण्‍ड
कोन दोषक अछि ई दण्‍ड।

केतेकोकेँ प्रेमक इतिहास
हमरे संगे होएत विनाश।

कटत हमर गात
होएत सभपर आघात
छेलौं संग-साथ
दुसमनो छल कात
अपने कर्ममे रहलौं तल्‍लीन
पल-पल आ राति-दिन
नइ चाहै छी कोनो प्रतिदान
सेवामे लगौने जी-जान
समता भाव रखि मन-मान
कहाँ बुझै छी केकरो आन।

केहेन कठिन अछि ई पल
हमरा लेखे कियो ने खल
दुसमनोपर बरिस रहल
शीतल छाँह आ अमरीत फल।

बुद्धिहीन सभ बनलौं मीत
नइ जानै छी हित-अहित
जनशत्रुकेँ मान-सम्‍मान
उपकारी केर लैत प्राण।

(२) हेरा गेल

सुखक सागर
कल-कल करैत जल
डुमकी लगबैक
मन करै छल।

बाटमे छेलै बाधा केतेक
एक नै अनेक
केना पहुँचब ओइठाम
जँ कियो पूछत-
अछि कोन काम
किए एलौं ऐठाम?

किन्‍तु उत्‍कट भेल इच्‍छा
एकरा रोकब केना
जाएब जेना-तेना
यादि पड़ल मनक गड़ल
मुँह झाँपियो करैए
लोक केतेक काज
हमरो लगबए पड़त
एहने कोनो भाँज
मुखौटाक अछि हजारो रंग
एकटा रखलौं मुँहपर
आर रखलौं संग
अनचिन्‍हारकेँ नै करत तंग।

नीक-अधला, बाट-कुबाट
सभकेँ करैत पार
पहुँच गेलौं निकट
आगूमे छल किनार।

ठमैक छुबै छी
मुँहकेँ हाथसँ
अकचका उठलौं
ऐ बातसँ।

हेरा गेल हमर मुख
तब भेटल ई सुख
केहेन भेल चूक
ई सुख छी आकि दुख?

रचनाकारक संक्षिप्‍त परिचए-
 जनम : १५ मार्च १९६० ईं.मे। पिता : स्‍व. सोनेलाल मण्‍डल उर्फ सोनाइ मण्‍डल। माता : स्‍व. फूलवती देवी। पत्नी : श्रीमती चन्‍द्रप्रभा देवी। पुत्र : निशान्‍त मण्‍डल, कृष्‍णकान्‍त मण्‍डल, वि‍प्रकान्‍त मण्‍डल। पुत्री : रश्मि‍ कुमारी। मातृक : बेलहा (फुलपरास, मधुबनी) मूलगाम : मुसहरनि‍याँ, पोस्‍ट- रतनसारा,  भाया- ि‍नर्मली, जि‍ला- मधुबनी। बिहार- ८४७४५२ मोबाइल : ९१९९५९२९२० शि‍क्षा : एम.ए. द्वय (मैथि‍ली, हि‍न्‍दी, एल.एल.बी)
ई पत्र : rajdeokavi@gmail.com
सम्‍मान : अम्‍बरा कवि‍ता संग्रह लेल विदेह समानान्‍तर साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार वर्ष २०१२क मूल पुरस्‍कार तथा समग्र योगदान लेल वैदेह सम्‍मान-२०१३ प्राप्‍त।
प्रकाशि‍त कृति : (१) अम्‍बरा- कवि‍ता संग्रह (२०१०), (२) बसुंधरा कवि‍ता संग्रह (२०१३), (३) हमर टोल- उपन्‍यास (२०१३) श्रुति‍ प्रकाशनसँ प्रकाशि‍त।

अप्रकाशि‍त कृति‍- चाक (उपन्‍यास), त्रि‍वेणीक रंग (लघु/वि‍हनि‍ कथा संग्रह)। 

Tuesday, April 10, 2012

राजदेव मण्‍डल- सीमा परक झूला



ई जर्जर झूला
लगैत अछि जेना तुला
सीमापर लटकल अछि
पुरान डारिपर अटकल अछि
पेंगापर झूलि रहल छी
आब स्वयंकेँ बिसरि रहल छी
अन्तिम छोरसँ
अपन बाँहिक जोरसँ
लगा रहल छी आस
नहि छी निराश
आस-पास
प्रभातक उजास
कखनहुँ एहिपार
कखनहुँ ओहिपार
बारम्बार
दोहराबैत छी कार्य ब्यापार
कट-कट-कट-कट
टूटि रहल डारि
दैत गारि
तइयो सम्हारि
धरतीसँ नाता जुटि रहल अछि
गाछसँ झूला छूटि रहल अछि
एम्हर आकि ओम्हर खसब
रहब स्वछन्द आकि जालमे फँसब
जीएब वा मरब
फेर किएक डरब
चाहे खसब एहिपार
चाहे खसब ओहिपार
रहत इएह धरती
इएह भाव आर विचार
सुख हो वा दुख
रहब अन्ततः मनुक्ख।
चीड़ीक जाति
धायल पाँखि पर
लटकल लहाश
लऽ कऽ पहुँचल
नीड़क पास
ओ जे ओकर नहि
किन्तु ओकरे छल
लहू सँ भीजल तन
कण-कण
सशंकित अछि चीड़ीक मन
तइयो
मातृत्व सिनेह
पियाबए चाहैत अछि
खियाबए चाहैत अछि
लोलमे राखल अहराक दाना
अनजान बच्चा गाबि रहल गाना
पाछू लागल शिकारी
बनल अछि अधिकारी
जेकरा भूखल आँखिमे
तरजू अछि लटकल
स्वादक बैटखारा
अछि मनमे अटकल
एकटा पलड़ामे प्रौढ़गात
दोसरमे अछि नवजात
घायल देह
टुटैत नेह
टप-टप चुबैत खूनक बूनसँ
धरती भऽ रहल स्नात
पूछि रहल अछि चिड़ै
अपना मनसँ ई बात
आबऽ बाला ई कारी आ भारी राति
कि नहि बाँचत हमर जाति...?

राजदेव मण्‍डल- नदीक माछ



नदीक कोखिसँ उछलल माछ
कऽ रहल हवामे नाच
यात्रा पहरक सगुनियाँ
छोड़ए चाहैत अछि जलदुनियाँ
देखऽ चाहैत अछि पवनदुनियाँ
नदीमे रहितो नहि पाबि सकल पानिक थाह
सूखलमे जएबाक हेतु खोजि रहल राह
करऽ चाहैत अछि समाजिक हित
बढ़बऽ चाहैत अछि नव दुनियाँसँ प्रीत
छोड़ि देत अपन पुरान बास
करत आब नव-नव प्रयास
खोजत नव-नव चीज
नव-नव बीज
लाभ होएत आकि हानि
जाँचत
केहेन अछि हवा पानि
रचत नव इतिहास
नूतन चास बास
परन्तु
सुनने छल ओ अपनहि कान
कहने रहथिन बूढ़-पुरान
‘‘कहियो नहि जाइहेँ ओहि दुनियाँ
ओहिठाम भरल अछि खुनियाँ।’’
किन्तु
नव अनुसंधान
माँगैत अछि जीवनदान
तखन भेटैत अछि सम्मान
कोटि-कोटिकेँ अन्न प्राण
मुदा ओ अछि अभागल
जलबून्द कड़ी अछि लागल
विफल भेल ओ छल बलमे
पुनः खसल ओहि नदीक जलमे
तद्यपि
बारम्बार कऽ रहल प्रयास
स्पर्शक हेतु मुक्ताकाश
छोड़ि देने अछि मोह एहि जलक
कऽ रहल कर्म चिन्ता नहि फलक।
बाट-बटोही
जाएब ओहि पार
खसौने घाड़
पुरान पहाड़
बरिसोसँ अछि ठाढ़
हमरा मार्गकेँ कएने अवरुद्ध
हड़पल भेल क्रुद्ध
कतेको लगेलहुँ बाँहिक जोर
दुखा रहल अछि पोर-पोर
इंच भरि नहि भेल टसमस
भऽ गेलहुँ हम बेबस
नहि कियो दऽ रहल अछि साथ
पहाड़ीपर पटकब आब माथ
डूबा देबैक हम खूनसँ
अपना घामक बूनसँ
विफल भेल छी देह जर्जर
पाछाँ सुनैत छी असंख्य स्वर
स्त्री-पुरुष, बाल अबाल
आबि रहल अछि तोड़ैत ताल
गाबि रहल अछि समूह गान
पुनः आएल शरीरमे जान
मनमे उठए लागल उफान
कतऽ गेल ओ पहाड़ी
काँटसँ भरल झाड़ी
आहि रौ तोरी ई कोन बात
गड़ि गेल भूमि आकि भागि गेल कात
आकि नभमे उड़ा देलक बसात
मार्ग भऽ गेल तत्क्षण समतल
चल-चल चल-चल
जय हो जनबल
ताकि रहल अछि बटोहीकेँ बाट
नहि कियो लगा सकैत अछि टाट।

राजदेव मण्‍डल- रहब अहीं सभक संग



चिचियाकेँ सोर पाड़ैत
हमर कंठ दुखा गेल
पियाससँ जेना
ठोर सुखा गेल
चारुभर भरल लहाश
कऽ रहल अछि हमर उपहास
कियो नहि सुनैत अछि
हमर अबाज
कतऽ चलि गेलाह
हमर समाज
जरुरी छल
एहि रुढ़िकेँ तोड़ि देब
भविष्‍यक हेतु
नव दिशा मोड़ि देब
अहाँ सभ तँ अपनहि छी अगाध
अग्रसर होऊ छोड़ू विवाद
नहि रोकि सकत कोनो बिघ्न बाध
हम नहि कएलहुँ कोनहु बड़का अपराध
हेओ एमहर आउ
नहि खिसिआऊ
नहि करब आब निअम भंग
नहि करब अहाँ सभकेँ तंग
लिअ अपन राज
नहि चाही हमरा ताज
नहि बदलब आब अपन रंग
रहब मिलि जुलि सभक संग।

राजदेव मण्‍डल- झाँपल अस्‍तित्‍व



नहि जानि कहियासँ
चाँपल अछि
हमर अस्‍तित्‍व
एकटा आकृतिसँ
झाँपल अछि
कखनहुँ काल
ओ देखबैत अछि त्रास
बारम्‍बार हटेबाक
हम कऽ रहल छी प्रयास
किन्‍तु ओ नहि छोड़ैत अदिबास
टकराइत रहैत अछि
हमरा मतिसँ
निर्बाध अपना गतिसँ
देखऽ चाहैत छी हम
सरुप
नहि अछि हुनक कोनहुँ रुप
सुनने छलहुँ हम खिस्‍सामे
एहन अनजानकेँ
देखि सकैत अछि शीसामे
हम मानैत छी
खास ज्ञानेन्‍द्रियसँ जानैत छी
भीतरमे ओ लगा रहल अछि फानी
सुनि रहल छी वक्र-वाणी
प्राप्‍त करबाक लेल उत्‍कर्ष
करऽ पड़त आब संघर्ष
नहि तँ बना सकैत अछि हमरा जोगी
किन्‍तु अस्‍तित्‍वक लेल अछि
ईहो उपयोगी।

राजदेव मण्‍डल- ज्ञानक झंडा



अनन्‍त अभिलाषा
बदलि देलक परिभाषा
आकाश सभ ठाम भरती भऽ गेल
चिड़ै चह-चह
लोग सह-सह
गन्‍ध मह-मह
अन्‍न गह-गह
भरल जान-माल
टूटि गेल जर्जर जाल
ज्ञान आब तोड़ए ताल
भागल तंत्र-मंत्र
सर्वत्र चलि रहल यंत्र
आब नहि चलत
अंधविश्‍वासक हथकंडा
फहरा रहल
विज्ञानक झंडा
चहुँदिश छँटि गेल अन्‍हार
भऽ रहल जए-जएकार
नित नूतन आविष्‍कार
अपरम्‍पार
बना रहल धराकेँ स्‍वर्ग सन
किन्‍तु कतऽ सँ आनत
ओहन जन-मन
तइयो लगौने आस
कऽ रहल प्रयास
नहि जानि झंडा आब कतऽ गड़त
कोन नव दुनियाँक खोज करत।

राजदेव मंडल - आह



लिअ पड़त आह
करुणा अथाह
बाहर शीतलता
किन्‍तु भीतरमे दाह
चारुभरसँ
घेरलक आह
लोक कहि रहल
वाह-वाह
अछि विश्‍वास
छूबि लेब आकाश
किन्‍तु पाइर तर अछि
असंख्‍य लहाश
चिचिआइत दास
तइयो
बढ़ल जा रहल मनक चाह
पार लगाउत कोन नाह
बिनु लेने आह
कि भेटि सकत
वाह-वाह
परंच,
नहि छी लापरवाह
खोजब नवका राह।

Saturday, April 7, 2012

कामना :: राजदेव मण्‍डल


कामना

अपन-अपन कामना सबहक पास
धरतीसँ पसरल अकास
बढ़ले जा रहल मासे मास
होइते बाधा दुखक आस
आस ि‍नरास तैयो आस- जि‍नगीक पाश
नि‍बुधि‍या पोता फानि‍ कऽ बजल-
यौ, बाबा आबि‍ गेल फागुन मास।
हँ रौ बौआ रौदा भऽ गेल
आब हएत जाड़सँ उबरास
परसाल कहाँ भेल छल जाड़
ऐबेरक जाड़ तँ देहकेँ कऽ देलक तार-तार
घुरमे जरि‍ गेल सभटा लार-पुआर
लगै छल नै बँचत जान
लीलसासँ भरल छल खान
दुनू बेटा भऽ गेल जुआन
हमरो बढ़ि‍ गेल सामाजि‍क शान
पलि‍बारक भार उठौलक कान्‍ह
आब नि‍चेन भेल हमरो जान
टहलब, बुलब कि‍छु करब दान
गाबि‍ सकब सुखसँ भक्‍ति‍ गान।
यौ बाबा नै करू लाथ
हमरा कहू एकटा बात
झगड़ा केलक बाबूसँ काका
माँगैत रहै तीन हजार टका
कहै छलै- तोहर नै ठीक‍ रहलौ ईमान
भऽ गेलह पूरा बेइमान
बाबू अछि‍ सभ झगड़ाक जड़ि‍
सनकेलकौ तोरा जि‍नगी भरि‍
ऐ जाड़मे करतौ ओ परलोक बास
बाँटि‍ लेबो सभ चास-बास
अपन-अपन चास, अपन-अपन बास
देखि‍हेँ सि‍नेमा खेलि‍हेँ तास
अपना सम्‍पति‍केँ करि‍हेँ नाश
बाबा ठीके करबै परलोकबास
बीतल जा रहल जाड़क मास।
घुमए लगलै माथक चाक
बाबा भेल अवाक्।