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Tuesday, September 4, 2012

कुसुम ठाकुर - हाइकू/ शेनर्यू


हाइकू छैक/ विधा सरल तैयो/ रचि ज्यों पाबि।
हमरा लेल/ गर्वक गप्प बस/ हमहुँ  जानि। 
नहि‍ बुझै छी/ ई विधाक लिखब/ कोन आखर। 
सलिल जीक/ ई मार्ग प्रदर्शन/ भेटल जानी। 
मोन प्रसन्न/ भेटल नव विधा/ छी तैयो शिष्या।
डेग बढ़ल/ सोचि नहि‍ छोड़ब/ ज्यों दी आशीष।
आस बनल/ अछि अहाँक अम्बे/ हम टूगर।
ध्यान  धरब/ हम केना आ नहि‍/ सूझे तइयो। 
पाप बहुत/ हम कने छी हे/ अहिंक धीया।
जाएब कतए/ आब नहि‍ सूझ/ करू उद्धार।

Tuesday, April 10, 2012

कुसुम ठाकुर- अभिलाषा



अभिलाषा छल हमर एक,
करितौंह हम धियासँ स्नेह ।
हुनक नखरा पूरा करैमे,
रहितौंह हम तत्पर सदिखन।
सोचैत छलहुँ हम दिन राति,
की परिछब जमाय लगाएब सचार।
धीया तँ होइत छथि नैहरक श्रृंगार,
हँसैत धीया कनैत देखब हम कोना।
कोना निहारब हम सून घर,
बाट ताकब हम कोना पाबनि दिन।
सोचैत छलहुँ जे सभ सपना अछि,
ओ सभ आजु पूरा भs गेल।
घरमे आबि तँ गेलीह धीया,
बिदा नहि केलहुँ, नञि सुन्न अछि घर ।
एक मात्र कमी रहि गेल,
सचार लगायल नहिये भेल।।

कुसुम ठाकुर - चुल बुली कन्या बनि गेलहुँ



बिसरल छलहुँ हम कतेक बरिस सँ,
अपन सभ अरमान आ सपना।
कोना लोक हँसए कोना हँसाबए,
आ कि हँसीमे सामिल होमए।
आइ अनचोक्के अपन बदलल,
स्वभाव देखि हम स्वयं अचंभित।
दिन भरि हम सोचिते रहि गेलहुँ,
मुदा जवाब हमरा नहि भेटल।
एक दिन हम छलहुँ हेराएल,
ध्यान कतए छल से नहि जानि।
अकस्मात मोन भेल प्रफुल्लित,
सोचि आएल हमर मुँहपर मुस्की।
हम बुझि गेलहुँ आजु किएक,
हमर स्वभाव एतेक बदलि गेल।
किन्कहुपर विश्वास एतेक जे,
फेर सँ चंचल, चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ।।