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Tuesday, September 4, 2012

अनिल मल्लिक -गीत


अनिल मल्लिक, बिराटनगर।
गीत
एकटा काल खण्ड, तहि जिलौं हम
यथार्थक हलाहल, एतहि पिलौं हम
मेटायल तृष्णा, यश मान धनक
ओह! क्षुधा कहाँ मेटा, हमर मनक
यतचिक्कन रस्ता, वातानुकुलित अट्टालिका, गतिशील सभ किछु
ओतखरजा, खपड़ा, ड़गर धुपमे ठाढ़ ताड़क गाछ, आर नै किछु
शर्द सीसा, उच्छवाशक भाफ सियाही, गुर अछि कलम
अहिना महिशारीसँ मेलबॉर्न यात्रा, लिखैत मेटबैत छी हम
दिग्भ्रमित उदिग्न मन नै अछि, आब स्पष्ट अछि, करब कि
एहन करब, मातृ ऋण सँ उऋण भजा, बेसी हम कहब कि
विरक्त भल छलहुँ, भेटल दुनियाँ रंग बिरंगी
लहुँ एतहि हुनको, पग पग साथ दैत जीवन संगी
चुपचाप देखैत रहैत छलथि, असगरे अपनासँ लड़ैत हमरा
कि भेलै नै जानि, कखैन ओ थि, देलथि कन्हाक सहारा
अश्रुपुरित, बाजि उठलथि धीरे सँ, आब चलू केओ यत रह रहौ
पलटि हम देखलहुँ हुनका, चमकि उठल बच्चा जकाँ आँखि.. ओहो!
मेघाच्छादित भादब मास, घुप्प अन्हार, जेना भेल अचानक प्रकाश चहुँओर
हजारो चिड़ैकेँ एकसाथ चिड़बिड़ चिड़बिड़, जेना भरहल हो नव जीवन भोर
बहुत भेल, पिब नै ई चमकैत हलाहल, आब पिब अमृत प्याला
मन मलङ्ग अछि, चललहुँ हम सभ, बजा रहल प्रेमक मधुशाला

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