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Saturday, September 29, 2012

दृष्टि‍कोण :: शि‍व कुमार झा 'टि‍ल्लू'

दृष्‍टि‍कोण

हि‍आक दू गोट रूप
अवलोकन आ वाचन
पहि‍लुक मात्र अपनहि‍ लेल
दोसर समाजकेँ जनेबाक लेल
पहि‍लुक जौं सद्गमनीय
स्‍व-संतोष आ कल्‍याणकारी जीवन
ओहेन व्‍यक्‍ति‍मे
दोसरक कोनो आवश्‍यकता नै
हमर जीवन पोथीक फूजल पन्ना
सभ वाचन दइत
पोथीक आखरक संग-संग
जौं पटल अर्थात् पृष्‍ठ कारी
केना आखर देखाएत?
एहेन फूजल अर्न्‍तमनक
कोनो प्रयोजन नै
मनसा-वाचा कर्मना
तीनू त्रि‍वेणीक धार जकाँ
वि‍लग... छि‍ड़ि‍आएल...
ई बेवस्‍थाक फेर नै
आ ने जाति‍-वंशक प्रभाव
जौं रहि‍तए तँ बैरमखाँक आंगनमे
रहीम फुदकैत केना?
जखन गुरुजीक मुखसँ
पहि‍ल बेर सुनलौं
आश्चर्य लगल छल
डार्विन जौं ई सुनि‍तए
तँ वंश-सि‍द्धान्‍त नै लि‍खतए
कि‍एक अछि‍ दृष्‍टि‍कोणक फेरि‍?
ई मात्र अर्थयुगक वि‍जय
सभ आगू जेबाक लेल
बपहारि‍ काटि‍ रहल
नीक गुण-धर्मसँ
नीक बाटपर नै
कुकरम करब मुदा
सभसँ आगू नाचब
पथ्‍य स्‍वादहीन होइछ
बाबाकेँ ब्रह्मपहरमे
दुग्‍ध पानक अभ्‍यास छलनि‍
हमहूँ प्रयास कएलौं
दूध तँ ि‍नरंतर नै रहि‍ सकल
मुदा! सुरापान धरि‍
अवश्‍य करए लगलौं
अपने टा नै
समाजक जाति‍क भारसँ
दाबल भरि‍आक बीच
कुहरैत संस्‍कारी दि‍लीप
कोनो राज पुत्र नै
रैदासक वंशज दि‍लीप
खूब पढ़ैत छल
हम घुमैत छलौं
आब ओकरो सि‍खा देलि‍ऐ
दुनू पि‍बैत छी
वाह रे मनुक्‍खक मोन
ऐ सँ नीक चाली
नोन देखि‍ते बाट बदलि‍ लइत
हम मनुक्‍ख छी
आर्यावर्त्तक वैदि‍क
सनातन पालक
पुरुष सूक्‍तसँ देल उपाधि‍
ब्रह्मकुलक पूत
हमहीं भँसै छी
कोनो ने मानवताक भीत ससरए
नानक-रैदास ईसा बुद्ध
परशुराम बुद्ध कृष्‍ण राम
सुरगण कुहरि‍ रहल
रहीमक अस्‍ति‍त्‍व वाम
अंतमे कनै छी
देखि‍ अवोध चि‍लका बि‍लखइए
अपन संग दोसरोक कल्‍याण
नै सोचलौं
की भेटल
मनु-वंशकेँ नाश कऽ देलौं
तँए जे देखू वएह सोचू
वएह अर्न्‍तमन सएह वाचन
नीक केलक नीक भेटल
अधलाह परि‍णाम स्‍वत: भोगैए
ईश्वर छैक की नै
वि‍षय गौण बुझू
मुदा! प्रकृति‍ तँ अवश्‍य
जकर डांगमे कोनो ध्‍वनि‍ नै
अधलाह परि‍णाम भोगबे करत
अधरकेँ हि‍आसँ जोड़ि‍
हमर दृष्‍टकोण नीक
चि‍चि‍आउ नै
सोचू.....
अान्‍हर रहू मुदा
सबहक कल्‍याण करू
जौं एतेक शक्‍ति‍ नै
तँ अपने कल्‍याण करू
जहानमे दृष्‍टि‍कोण वि‍हान
अवश्‍य अाएत।

Tuesday, September 4, 2012

गीत- रामभरोस कापड़ि भ्रमर


रामभरोस कापड़ि भ्रमर, १९५१-। जन्म-बघचौरा, जिला धनुषा (नेपाल)। बन्नकोठरी: औनाइत धुँआ (कविता संग्रह), नहि, आब नहि (दीर्घ कविता), तोरा संगे जएबौ रे कुजबा (कथा संग्रह, मैथिली अकादमी पटना, १९८४), मोमक पघलैत अधर (गीत, गजल संग्रह, १९८३), अप्पन अनचिन्हार (कविता संग्रह, १९९० ई.), रानी चन्द्रावती (नाटक), एकटा आओर बसन्त (नाटक), महिषासुर मुर्दाबाद एवं अन्य नाटक (नाटक संग्रह), अन्ततः (कथा-संग्रह), मैथिली संस्कृति बीच रमाउंदा (सांस्कृतिक निबन्ध सभक संग्रह), बिसरल-बिसरल सन (कविता-संग्रह), जनकपुर लोक चित्र (मिथिला पेंटिङ्गस), लोक नाट्य: जट-जटिन (अनुसन्धान)। नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठानक सदस्यता- श्री राम भरोस कापड़ि 'भ्रमर' (२०१०)


गीत

ओ पवन, झिहिर झिहिर बहैत जाउ
छूबि बताउ कने, पिया छथि कतए केकरा संग
वर्षहु गेला भेलनि‍, सुधिबुधि किछु ने छन्‍हि‍!
दिन भेल पहाड, दुख भेल जीवनक अंग।

निष्‍ठूर समाज चाहे, नोचि नोचि खाइ जेना
शेरक भूख बनल जवानीक तरंग जेना
चारुभर शिकारी ताकमे बैसल अछि
रहल ने कोनो उमंग!
ओ प, पिया छथि कतए केकरा संग!!

अधिकारक बात सभ लागु ने भेल कखनो
नारीक बेथा-कथा कमैनीक धंधा एखनो
जान जोखिम बनल कतए धरि घींचब
त्‍यागब प्राण वियोगे कन्‍त!
ओ पवन, पिया छथि कतए केकरा संग!!

जानि जानि आगिसँ खेली केना हम
शक्ति भरल मुदा तौली केना हम
शील, सुशील मिथिला केर ललना
पतिक परोक्ष भेल शिथिल तरंग!
ओ पवन, पिया छथि कतए, केकरा संग!!


कामिनी कामायनी -वसन्त



नाचि रहल व तरंग
नूतन वसंत नूतन वसंत।
व ताल वृन्द व छाग फाग
व गेह देह व पात साग।
व बाट हाट व प्रीत गीत
व लाेभ क्षाेभ व हास्य रूदन
नवनीत रूप व कमल नयन।
मन हर्षित भऽ नितराति कहल
आएल वसंत वका वसंत।
व सखी सखा व मधुर रास
वका सूरूज वका प्रकाश।
व तालमेल व धूर खेल
व जान माल व वृद्ध बाल।
सभ तर मदमातल छै अनंग
व वसंत नूतन वसंत़।
व स्वप्‍न नयनमे उठल उठल
उल्लास हियमे भरल भरल।
रज कणसँ झाँकैत अछि पर्यन्त
वका वसंत वका वसंत।
व कुसुम कली सकुचाए उठल
मदमस्त भ्रमर मडराए रहल
कुहुक काेयलिया गाबि रहल
रस रंग सुधा बरसाय रहल।
अल्हड बसात चलै सनन सनन
मकि उठल नंदन कानन।
आएल गाएल मन माेहि चलल
नूतन वसंत व वसंत।

सहास- इन्द्रभूषण कुमार


इन्द्रभूषण कुमार, पि‍ताक नाओं- स्‍व. पुलकि‍त साहु, गाम- लक्ष्‍मि‍नि‍याँ, पोस्ट- छजना, भाया- नरहि‍या, जि‍ला- मधुबनी (बि‍हार)


सहास
भऽ रहल छल आयोजन काव्यपाठक
जुटल छल कविलोकनि सभ भागक
समाप्त भेल औपचारिकता
पढ़ए लागल कवि सभ अपन-अपन कविता।

बहुत रास कवि बहुत रंगक कविता
कि‍यो मोहित छल नायिकाक सुनर गालपर
कि‍यो व्यथित छल प्रेयषीक बदलल बेवहारपर
कि‍यो छलथि‍ क्रांतिक झंडा उठौने
कि‍यो रहथि‍ भ्रष्टाचारी सभकेँ भरिमन गरियौने।
अनमनस्यक भऽ कऽ हमहूँ सुनैत रहौं
कि‍यो सूतल नै माने तँए
निक-बहुत-निक करैत रहौं।

अचानक मंचपर अवतरित भेल एक नारी
जेहने देखैमे कारी
पहिरनो रहै तेहने मैल‍ साड़ी।

शुरू केलक अटकि-अटकि कऽ बाजनाइ
नै आबैत छल ओकरा शब्दक जाल बुननाइ
मुदा चेहरापर तेज छल
मनमे उत्साहक अतिरेक छल
भय नै, जँ कहि हुसब
श्रोता सभ भरिमन दूसत।

नै लय रहै ने रहै छंदक सुन्दरता
तैयो सभ प्रसन्न भऽ समवेत स्वरमे
केलथि हुनकर प्रयासक प्रशंसा।

जे कहि नै सकल शब्द
प्रयास ओकर कहलक
लागत नै कठिन
चाहे लक्ष्य हुअए किछु खास
बस राखि भरोसा अनपनापर
करी बढ़बाक सहास।


कुसुम ठाकुर - हाइकू/ शेनर्यू


हाइकू छैक/ विधा सरल तैयो/ रचि ज्यों पाबि।
हमरा लेल/ गर्वक गप्प बस/ हमहुँ  जानि। 
नहि‍ बुझै छी/ ई विधाक लिखब/ कोन आखर। 
सलिल जीक/ ई मार्ग प्रदर्शन/ भेटल जानी। 
मोन प्रसन्न/ भेटल नव विधा/ छी तैयो शिष्या।
डेग बढ़ल/ सोचि नहि‍ छोड़ब/ ज्यों दी आशीष।
आस बनल/ अछि अहाँक अम्बे/ हम टूगर।
ध्यान  धरब/ हम केना आ नहि‍/ सूझे तइयो। 
पाप बहुत/ हम कने छी हे/ अहिंक धीया।
जाएब कतए/ आब नहि‍ सूझ/ करू उद्धार।

ओइ दिन - मृदुला प्रधान


मृदुला प्रधान



ओइ दिन 
ओइ दिन..
सभासँ अबैत काल
ओझा भेटलाह,
कहए लगलाह-
मैथिली बजैत छी तँ
मैथिलीमे कि‍अए ने
लिखैत छी?
एतबा सुनितहि
कलम जे सुगबुगाएल से
रुकबाक
नामे नै लैत अछि, किन्तु
बचपनमे सुनल,
दू-चारिटा
शब्दक प्रयोगसँ
की कविता लिखब
संभव थिक?
सएह भाव
जुटाबए लगलौं
डायरीमे,
नाना प्रकारक बात,
कुसियारक खेत
इजोरिया राति,
भानस-घर तँ 
भगजोगनीक बात।
नेना -भुटकाक 
धम-गज्जड़मे
कोइलीक बोली 
सुनए लगलौं,
भिनसरे उठि कऽ
एम्हर-ओम्हर
टहलए लगलौं.....
बटुआमे राखि कऽ
सरोता-सुपारी,
हातामे बैस कऽ
तकैत छी फुलबारी।
सेनुरिया आमक रंग
सतपुतिया बैगनक बारी,
चिनिया
केराक घौड़
गोबरक पथारी।

पाकल छै कटहर,
सोहिजन जुआएल छै,
अड़हुल-कनैल बीच
नेबो गमगमाएल छै।
कविताक बीचमे 
ऐ‍ सबहक की प्रयोजन?
अनर्गल बातसँ
ओझा बिगड़ियो जेताह,
थोड़-बहुत जे
इज्जत अछि,
सेहो उतारि देताह.
गाए, नेरु, कुकुड़, बिलाड़ि‍
सबहक बोलियोक बारेमे
लिखल  जा सकैत छै किन्तु
से सभ,
पढ़एबला चाही,
सौराठक मेलाक
प्रसंग लिखू तँ
बुझएबला चाही।
कखनो हरिमोहन झाक
‘बुच्ची दाइ' आ ‘खट्टर कका' 
बारेमे सोचैत छी तँ
कखनो ‘प्रणम्य-देवता'क चारू
‘विकट-पाहुन’केँ ठाढ़ पबै छी।
कखनो लहेरियासराइक
दोकानमे,
ससुर-जमाए-सारक बीच
कोट लऽ कऽ
तकरार, तँ कखनो होलीक
तरंगमे,
‘अंगरेजिया बाबूक
सिंगार।
सभटा दृश्य,
आँखिक सोझाँ
एखन पर्यन्त
नाचि रहल अछि।
‘कन्यादान 'सँ लऽ कऽ
‘द्विरागमन' तक,
खोजैत चलै छी
कविताक सामग्री,
अंगना, ओसारा, भि‍ंडा, पोखरि
चुनैत चलै छी,
कविताक सामग्री .
शनैः शनैः 
शब्दक पेटारी,
नापि-तोलि कऽ
भरि रहल छी,
जोड़ैत-जोड़ैत 
अइठाम-ओइठाम,
हेर-फेर 
करि रहल छी .
जइ दिन ,
अहाँ लोकनिक समक्ष,
परसै जकाँ किछु 
फुइज जाएत ,
इंजुरीमे लऽ कऽ,
उपस्थित भऽ जाएब,
यदि कोनो भांगठ रहि जाए तँ
हे मैथिल कवि-गण,
पहिनहि 
छमा दऽ दै जाएब। 

कालीनाथ ठाकुर- अभिशाप बापक पाप- कुण्डलिया


कालीनाथ ठाकुर, सर्वसीमा, दरभंगा, बिहार 

अभिशाप बापक पाप
कुण्डलिया
पण्डितजी दण्डित भेलाह जखनहि कन्या पाँच
पूर्व जन्मक कर्म फल, वा विधिक कोनो ई जाँच।
विधिक कोनो ई जाँच, यएह चर्चा भरि गामक
लाबथु नोट निकालि जत्ते सम्पत्ति छन्हि मामक।
पनही गे
लनि‍ खियाए, कतौ नै बैसलनि गोरा
धन्यवादक पात्र छथि ‘‘कलियुि‍गक घोड़ा।

सत, रज, तम, सभ व्यर्थ थीक शिक्षा शील स्वभाव
गुण एकहि अछि अर्थ गुण अवगुण अर्थाभाव
अवगुण अर्थाभाव भाव नै अछि गुण रूपक
कन्या कारी, गोर, मूर्ख वा दिव्य स्वरूपक।
मायक दूधक दाम जोड़ि‍ गनबौता टाका
पुत्र हुनक गामक गौरव से कहलथि काका

बीतल शुद्ध आषाढक अगहन वैशाख।
पहिल कुलच्छन बुझलनि, जखने घुरि एला सौराठ॥
घुरि एला सौराठ हाट करथु बेचारे
विधिक लिखल के मेटल आब रहि जेता कुमारे॥
छोरलनि बीस हजार, लोभमे तीस हजारक।
कए रहला गणना जोतखी, ऐ‍ साल बजारक

सुनलनि जखनि सुषेणसँ, दहेज निरोधी न्यूज
तखनहि जेना दिमाग केर ढिबरी भऽ गेल फ्यूज
ढिबरी भऽ गेल फ्यूज बराति कन्यागत दुनू
घटकैती के करत घटक केर हाल ने सुनू
बरक हाथ कनियाँ बरियातीक हाथ हथकड़,
सरियी सभ करथु
दौग-बड़हा कचहरी।

लूटन झा तँ लूटि गेला कए दूइ कन्यादान
मोछ पिजौनहि रहि गेलाह करता की बरदान?
करता की बरदान चोट छन्हि नगदी नोटक
उजरल बरदक हाट प्रथम ई बात कचोटक
घटक राज केर संग करथु बरु तीर्थयात्रा
करथु मन्त्रणा गुप्त मुक्त भऽ सफल सुयात्रा

जाति जनौ बाँचत केना? कुल मर्यादा मान
अन्तर्जाति ि‍वयाहमे घोषित नकद ईनाम
घोषित नकद ईनाम संग सर्विस सरकारी
कहय शास्त्र ओ वेद मात्र द्विज छथि अधिकारी
करथु ग्रहण ककरो कन्या हो डोम चमारक
मन डोललनि पण्डित जी के जे उच्च विचारक

भेल मनन मन्थन बहुत, ई समाज केर पाप!!
की दहेज बनले रहत समाजक अभिशाप!!
समाजक अभिशाप ब्याज ई पूँजीवादक।
बेच आत्मसम्मान स्वांग धरि कुल मर्यादक
सिद्धान्त नै बेवहारो केर करू प्रदर्शन
तखनहि तँ भऽ सकत रोग उन्मूलन॥
(सन १९६८ईं.मे रचित दहेज विरोधी रचना)

गद्य कविता डॉ. काञ्चीनाथ झा ‘किरण’क नामक अद्वैत मीमांसा- रमेश


रमेश १९६१- ,जन्म स्थान मेंहथ, मधुबनी, बिहार। चर्चित कथाकार ओ कवि। प्रकाशित कृति: समांग, समानांतर, दखल (कथा संग्रह), नागफेनी (गजल संग्रह), संगोर, समवेत स्वरक आगू, कोसी धारक सभ्यता, पाथरपर दूभि (काव्य संग्रह), प्रतिक्रिया (आलोचनात्मक निबंध)।

गद्य कविता
डॉ. काञ्चीनाथ झा किरणक नामक अद्वैत मीमांसा
अहाँ स्वभिमानी छी, तँ किरण जी छी।
जनमानसक पक्षमे सामाजिक छी, तँ किरणजी छी।
अहाँ किरणजी छी, तँ मह-महाइत मिथिला छी।
अहाँ मह-महाइत मिथिला छी, तँ निश्चिते कह-कह भुम्‍हूर सन किरणजी छी।
अहाँ मानसिकता आ मोहविरामे सोइतछी, तँ किरणजी नै छी। मोहविरामे पञ्जी-प्रबन्धक बाबू साहेबछी, तँ किरणजी नहिए टा छी।
अहाँ वास्तवमे जयवारछी, तँ चलू कहुना कऽ किरणजी छी।
जँ ब्राह्मण-वर्गीकरणमे कत्तहु टा नै छी अहाँ, तँ जरूर किरणजी छी।
आ जँ दसो दिकपालमे सँ कि‍यो अहाँक पैरबीकार नै छथि, तँ ध्रुव सत्य मानू, अहाँ आर कि‍यो नै, किरणेजी टा छी।
अहाँक मन-बन्ध सुमनजी-अमरजी सँ हुअए, तँ भऽ सकैए, संज्ञा रूपें अथवा मोहविरामे अहाँ साहित्यिक आ धार्मिक ब्राह्मण भऽ जाइ। अहाँक मन-बन्ध मधुप जीसँ हो, तँ निश्छल भक्त-हृदए मैथिल जीवनक लोकगायक अहाँकेँ मानबामे कोनो असौकर्य नै। जँ मणिपद्धजी सँ मन-बन्ध हुअए, तँ, अपनाकेँ मिथिलाक लोक-संस्कृति-चेताक उदात्त उदाहरण बूझि सकैत छी। आ जँ अहाँक मन-बन्ध किरणेजी टासँ हो, तँ सय प्रतिशत मनुक्खक अलावा अहाँ आर किछु भैय्ये नै सकैत छी।

कविवर सीताराम झाक अन्योक्ति-वक्रोक्ति आइयो मिथिलाक जड़ता-जटिलतापर मूड़ी पटकि रहल अछि।
अपन मुक्तिक प्रसंग तकैत आइयो राजकमल मिथिलाक महावनमे अहुरिया काटि रहल छथि।
बाबा बैद्यनाथकेँ पाथर कहैत आइयो किरण-शिष्य यात्रीक अनवरत ब्रह्माण्ड-विलाप जारी अछि। धूमकेतु मनुक्खक देवत्वेपर एखनो रिसर्चकऽ रहल छथि। मुदा साक्षात् किरणजी आइयो मनुखताक उपेक्षापर गुम्हरैत, पुरातनपंथीकेँ कान पकड़ैत/ माटिक महादेवकेँ छोड़ि मनुक्ख-पूजनक सुस्पष्ट उद्घोषणा कऽ रहल छथि।

अहाँ खट्टर कका छी, तँ, माङुरक झोड़सँ चरणामृत लऽ सकैत छी। मुदा किरणजी जकाँ माङुरक ओही झोड़सँ सर्वहारा वर्गक अरूदा बढ़ेबाक बैदगिरी नै कऽ सकैत छी। अहाँ कञ्चन-जंघासँ कूच-विहार धरिक यात्रा कऽ सकैत छी, मुदा डोमटोलीसँ मुसहरी धरिक नै। अहाँ समाजिक सरोकारमे सुधारवादी भऽ सकैत छी, मुदा, किसान-आन्दोलनकेँ मिथिलाक जमीनपर उतारि परिवर्त्तनकामी नै।

अहाँ भाङ पीब वसंतक स्वागत करब, तँ, अहाँकेँ, बताह कहबामे हुनकर संघर्ष-गीतक भास कनियो बे-उरेब हेबाक प्रश्ने कहाँ अछि? जहिना रूसोक पृष्ठभूमि बिना फ्रांसीसी क्रांति संभव नै छल, तहिना मधुरमनिक पृष्ठभूमि बिना जोड़ा-मन्दिरक अस्तित्व संभव कहाँ छल? ‘जगतारानिनै तँ बाँसक ओधिकी? माटिक अभ्यर्थना नै आ जनोन्मुखी सोचक सर्जना नै तँ आलोचनाक राज हंसक धोधि की?

ओ प्राचीन गीतक लाउड-स्पीकरबनि सकैत छलाह, नवीन गीतक सी.डी.क उद्गाता नै। ओ राज-सरोवरक हंस बनि नीर-क्षीर-विवेक(?) सँ आभिजात्य मीमांसाक पथार लगा कऽ साहित्यालोचनक खुट्टा गाड़ि सकैत छलाह। मुदा नव-चेतनाक प्रगति-शील गीतक गाता आ ज्ञाता नै। ओ किरणजीकेँ काव्योपेक्षाक दंश दऽ सकैत छलाह, मुदा हुनका काल-निर्णए आ आगत-पीढ़ीक मूडअज्ञात छल। ओ वस्तुतः शास्त्रीयछलाह, आ किरणजी तृणमूलक कार्यकर्त्ता। ओ उरोजकेँ सरोजक उपमान बना श्रृंगार-काव्यक प्राचीन परंपराकेँ सम्पुष्ट कऽ सकैत छलाह। मुदा धानक उरोजमे दूध भरबाक सामर्थ्य हुनका कतए? ओ हुनकर जीवनक जड़त्व आ साहित्यक सीमा छल।

अहाँ भासा-मंचपर लोक-चेतनाक सर्जक छी- तँ किरणजी छी।
साहित्यिक-मंचपर सामाजिक-चेतनाक पोषक छी- तँ किरणजी छी।
संस्कृतिक मंचपर जन-संस्कृतिक गायक छी- तँ किरणजी छी।
राजनीतिक मंचपर दिशाहारा-वर्गक पुष्टिवर्द्धनमे महराइगबैत छी- तँ किरणजी छी।
विद्यापतिक-मंचपर जनवादी गीत-संस्कृतिक उद्घाटक छी- तँ किरणजी छी।
अहाँक जीवन-दर्शन सुचिंतित ऊर्ध्वगामी अछि- तँ किरणजी छी।
जीवन आ साहित्यमे समरूप दृष्टिकोण हुअए- तँ अहाँ किरणेजी टा भऽ सकैत छी।





शिवशंकर सिंह ठाकुर- श्रद्धान्जलि


शिवशंकर सिंह ठाकुर

श्रद्धान्जलि

आइ पुनः आएल ई दिवस अछि,
हमर अहाँक आइ मिलन अछि,
आइयेक दिन हम अहाँ एक सूत्रमे बन्हल रही
प्रेमक फूल अहाँक बाड़ीक
हमर जीवनमे आइ खिलल छल ,
आ हमर मिलन सेहो तँ प्रिय
आजुक पावस दिवसमे
कतेको साल पहिने खिलल छल !!!

कतेक बढ़िया छल ओ दिन
आ अहसास हमर मिलनक,
जखन अग्नि केँ साक्षी मानि कऽ,
हम अहाँ आइये प्रणय-सूत्रमे बन्हल रही,
ओ राति किछु खास छल,
चाँदनी मे नहाएल छल,
हमर अहाँक मिलनक गवाह बनल छल !!!

हम समर्पित भऽ गेल रही अहाँक अंकमे ओइ राति,
आ अहूँ तँ अपना आपकेँ हमरा समर्पित कऽ देने रही
प्रेमक रसमे हम दुहु गोटे सराबोर भऽ गेल रही,
ओइ राति हमर दिल कतेक जोड़ सँ धड़कि रहल छल,
आ धौंकनी जकाँ धधकि रहल छल हमर सम्पूर्ण देह,
घाम सँ लथपथ ,एक दोसराक बाहुपास मे सिमटल रही,
ओइ राति हम हम नै रही,अहाँ अहाँ नै रही,
दुहू गोटा एक भऽ गेल रही !!!

हमर बाड़ीक तीनू फूल आइ पैघ भऽ गेल,
कतेक सुन्दर लागि रहल अइ ,
अहाँ रहितौंह तँ देखितौंह आ हमरा चिकौटी काटितौंह,
ई तीनों तँ अहींक 'प्रेम' गाछक फूल अइ,
एकरा देखबाक खुशी कते पैघ होइत छैक ,
से तँ अहाँ बुझबे करैत छी,
एकरा तँ व्यक्त नै कएल जा सकैछ,
ई तँ अव्यक्त होइत अछि,
आखिर मे ई शरीर तँ सेहो स्थूल भऽ जाइत अछि !!!

आइ अहाँ नै छी तैओ हमरा लगैए,
जे अहाँ किम्हरो सँ हमरा देखि रहल छी,
हमर खुशी आइ अपूर्ण लागि रहल अछि,
तैयो हमर खुशीमे मानू अहाँ अपन खुशी ताकि रहल होइ,
आइ हम कतेक असगर लागि रहल छी,
रहि-रहि अहाँक स्मरणमे कोर काँपि रहल अइ,
हमर मोनक भावना केँ कियो अनुभव कऽ सकैछ ,
हमरा लेल आइयो अहाँ ओतबे स्नेहपूर्ण छी !!!

अहाँ दऽ जखन हम सोचै छी,
अहाँक संग बिताएल एक एक क्षण, एक एक पल
केँ स्मरण कऽ कऽ हम प्रफुल्लित भऽ जाइ छी,
कोना कऽ अनझोके सँ हम अहाँ टकरा गेल रही,
अहाँ कनी बेशी तमसा गेल रही,
ओकर बाद तँ हमर अहाँक भेँट-घाँट होइते रहल,
आ हमर अहाँक प्रेम बढिते गेल,
फेर दुहु गोटे प्रणय -सूत्र मे बन्हि गेलौंह !!!

आजुक ई दिन अति पावन अइ,
आब जखन की अहाँ नै रहलौंह,
हम की करू ,आजुक दिनकेँ कोना कऽ मनाउ,
से नै फुरा रहल अछि,
पहिने तँ दुहु गोटा मिल कऽ आजुक दिनकेँ मनबैत रही,
अही दिन केँ विशेष रूप सँ यादगार बनबैत रही ,

ओतेक हिम्मत आब हमरा नै रहि गेल !!!

हम धीरे धीरे आब टूटऽ लगलौंह अछि ,
आब जखन कखनो अहाँक याद अबै अछि
हम चुप्पे सँ कानि लै छी, फेर बच्चा सभ केँ देख कऽ
अपन काननाइ रोकि लैत छी, मोन मे गबधी मारि लैत छी,
भीतर सँ अशान्ते रहैत छी, मोन मे लललाहा आगि के देखैए?
अहाँ तँ सदिखन हमर मोने मे रहब ,
तैयो आइ अहाँक बहुत याद अबैए ,
अकुलाइतो हम चुप छी ,
बुझाइए जे ई चुप्पी हमर साँसक संगे टूटि पाएत ,
मोनक बात मनहि रहि जाएत,
अपन बात आइ एतहि सम्पन्न करैत छी,
आजुक ई कलम अहींकेँ समर्पित करै छी!!!

हमर ई फूल अहाँ स्वीकार करू,
हमर ई नोर, ईएह श्रद्धांजलि अइ,
गलती केँ माफ करैत ,
एकरा स्वीकार करू !!!


भोर भेलै- इरा मल्लिक



इरा मल्लिक, पिता स्व. शिवनन्दन मल्लिक, गाम- महिसारि, दरभंगा। पति श्री कमलेश कुमार, भरहुल्ली, दरभंगा।

भोर भेलै
भोर भेलै,
घरनीक तँ हाल बड़ा बेहाल छै,
तहियो ओ नेहाल छै।
घरनी धुरी छथि गृहस्थीक।
आँखि मिरैत उठि पुठि भोरे,
भनसाघर ओ दौड़ै छथि,
चाय बनाबक छन्हि हुनका,
केतली चूल्हापर चढ़बै छथि,
नास्ता संग तैयार करैत छथि,
दिनभरिक दिनचर्या,
घरनी धुरी छथि गृहस्थीक।
घर भरि कानमे तूर तेल लेने,
एखनो निसभरि सूतल छथि,
पतिदेव आ नेनाकेँ,
जगेनाइ एखैन तँ बाँकी छै,
ऑफिस आ स्कूल भेजबाक,
सरंजाम केनाइ तँ बाँकिये छै,
तहियो भोरतरंगक खुशी,
समेटि आँचर मे बान्है छथि,
घरनी धुरी छथि गृहस्थीक।
जीवनक अइ आपाधापीमे,
खुशीक फूल लोढ़ै छथि,
ओइ फूलक सुरभित मालासँ,
परिवारक बगिया सजबै छथि,
जीवनक शृंगार बसल,
सुंदर हिनक गृहस्थीमे,
संगीतक सुर तान बसल अछि,
मनभावन हिनक गृहस्थीमे,
घरनी धुरी छथि गृहस्थीक!

वाणिक लैस- अक्षय कुमार चौधरी


अक्षय कुमार चौधरी, पिता राजनारायण चौधरी, ग्राम+पोस्ट: महिषी (पुनर्वास आरापट्टी), जिला: सहरसा संप्रति दिल्ली स्कुल आ‌‍फ इकोनोमिक्स मे अन्वेषक आ समाजशास्त्री छथ हिनक "Dowary among the Maithil Brahmins: aspects of Change and contitunity" बिषय पर पी. एच. डी. आओर "Marriage among the Maithil Brahmins" विषय पर एम. फिल. केर अन्वेष काज छन्हि
वाणिक लैस
उत्तराहा कहलथिन दखिनाहा कैं-
रौ, तोरा माटि मे लैस छौ
मुदा वाणि मे लैस नै.
...उत्तराहा? ...दखिनाहा?
वाणिक ऐव तँ ऐव छैक!
...कैव तँ कैव छथि!!
ओलक कब-कब पजै छै
गंगोतिओ माटि-पानि पर!
कोशिकन्हो माटि-पानि पर!!
बोल, भाव, स्वभाव, केर मिठास
कि मोल भेटय बजार मे?
वाणिक लैसक कि मतलब
उत्तर, दखिन, शिक्षा, विदुता सँ!
वाणिक तेख तँ तेख छैक!
... कैव तँ कैव छथि!!

गजल- जगदीश चन्द्र ठाकुर “अनिल”


जगदीश चन्द्र ठाकुर “अनिल, जन्म: २७.११.१९५०, शंभुआर, मधुबनी । सेवा निवृत बैंक अधिकारी। तोरा अनामे -गीत संग्रह-१९७८; धारक ओइ पार-दीर्घ कविता-१९९९ प्रकाशित
गजल

पढबाक मोन होइए, लिखबाक मोन होइए
किछु ने किछु सदिखन सिखबाक मोन होइए

अन्हड़ जे रातिखन एलै, सभ गाछ डोलि गेलै
टिकुला कतेक खसलै बिछबाक मोन होइए

सासुर इनार होइए आ डोल थिकहु हमहू
किछु ने किछु एखनहु झिकबाक मोन होइए

अहा आबि जे रहल छी सुनिकबताह भेलहु
गोबरस आइ आंगन निपबाक मोन होइए

दुइ ठोर थीक अथवा तिलकोर केर तड़ु
होइत अछि लाज लेकिन चिखबाक मोन होइए

कोनो ऑफिसक चक्कर लगबने पड़ै ककरो
ई बीया विचार-क्रान्तिक छिटबाक मोन होइए

आजादीक लेल एखनहु संघर्ष अछि जरूरी
व्यर्थ गेल सभ मांगब छिनबाक मोन होइए