दिव्य शक्ति
दिव्य शक्ति पबिते मनुज मन
दिव्य ज्योति बिखड़ैए।
सगतरि एक्के रश्मि बिलहि
दिव्य-भूमि, वसुधा कहबैए।
गंगा सदृश धार जतए
नीक-अधलाक विचार करैत
सभकेँ पार करैवाली गंगे
अनवरत गतिये वहैत रहैत।
दिव्य भूमि पहुँचते वसुधा
धरा-धम कहबए लगैत।
नै रहैत भेद ततए मनुजमे
सुर-धामक कपाट खुजैत।
जतए विराजए वसुदेव
वसुधा वएह कहबैए।
नन्द-नन्दक मंत्र सुमरि
आनन्द वन भरमैए।
पाँचम कला बनि जे बीआ
मनुज मन विरजैए।
डेगे-डेग डगरि-डगरि
सोलहम कला पबैए।
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