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Sunday, April 8, 2012

कि‍सान :: जगदीश मण्‍डलक कवि‍ता


कि‍सान

अपन दुख-दरद भाय
जाधरि‍ अपने नै बुझब।
ता धरि‍ केना पाबि‍ सकै छी
नीक भवि‍ष्‍यक नीक सोचब।
नि‍च्‍चाँ-ऊपर सभ बजैए
कि‍सानेक देश भारत छी
कटि‍-मरि‍ कि‍साने सभ
अंग्रेजोकेँ भगौने छी।
जरि‍-उजरि‍‍ कते गाम
कते लोक प्राण चढ़ौलक
पैंसठि‍ बर्खक आजादी की
पेटोक दुख मेटोलक।
जहि‍ना आजादीसँ पहि‍ने
चुसलक खून राजा-रजवार।
तहि‍ना तँ आइयो होइए
चुसैए देशी-वि‍देशी करखन्नादार।
चि‍ड़ै सभ जहि‍ना गाछक ऊपर
खोंता बनबैए अपने लोले।
तहि‍ना ने अपनो भऽ सकत
लुरि‍-बुइध अपने बोले।
ि‍नर्णायक दौग आबि‍ रहल,
अछि‍ ि‍नर्णायक मोड़।
मोड़ मोड़ि‍ घुमाएब नै जाधरि‍
पाएब केना थोड़ो-थोड़।
स्‍वतंत्र देशक स्‍वतंत्र जन
गहि‍ एकरा धड़ए पड़त।
यएह छी सोचै-वि‍चारैक
जीबैले लड़ए पड़त।

))((

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