चारि दिनसँ कविजी!
आधे पेट खाइत छथि
दुइये पसेरी चाउर
आ तीनिये पसेरी चिकसमे
मास खपेबा लेल
साँझेसँ ओ
परतारैत रहै छथि
धीया–पुताकेँ
सूतय लेल
आ घरनीसँ फूसि बाजि
ताकतक बदला
निन्नक गोली
खा लैत छथि कविजी!
भरिपोख सूतबा लेल
मुदा, तैयो कविजी
उठिये जाइत छथि
भुरूकबासँ पहिने
कविता लिखबा लेल
कविता!
जकरा हुनक घरनी
सौतिन कहि
गरियाबैत रहै छन्हि
कविता!
जकरा हुनक सम्बन्धी
डाइन कहि
लतियाबैत रहै छन्हि
तकरे सृजनमे
फरिच्छ धरि
अपस्याँत रहै छथि कविजी
सहज, सरस
आ चोखगर–चोखगर
शब्द
हेरय लेल ओ....
काटय छथि अहोछिया
ठीक ओहिना
जेना कमलक पंखुरी मध्य
कैद भौंरा
अतुल रसपानसँ अफरिकेँ
औनाइत रहै-ए
भोरक आसमे..........
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