Pages

Tuesday, April 10, 2012

साँझ :: जगदीश मण्‍डल


साँझ

जि‍नगीमे साँझ कहाँ छै
छी दि‍न-राति‍क मि‍लन बेल।
एक सि‍रजन दोसर उसरन
बदलब छी मात्र खेल।
अपन गति‍ये सभ चलै छै
चाहे सुर्ज हो वा ग्रह-नक्षत्र।
तहि‍ना देवो-दानव चलै छै
बनि‍ रक्षक चाहे भक्षक।
चाहे गंगा हो वा जमुना
धार पेट धारण करै छै।
तह‍ी मध्‍य ने सरस्‍वती
साँझ-प्रभाती सेहो गबै छै।
आलय-हि‍मालय ओ कैलाश
वि‍श्राम भूमि‍ बनल छै।
बाट-घाट ओ तीर्थ-वर्त
अनवरत बनि‍ पड़ल छै।
सभ दि‍नसँ आबि‍ रहल
बाल-सि‍यान बदलैत रहल।
उमेरे आकि‍ बाल बोधे
अनि‍र्णित प्रश्न बनल रहल।
जहि‍ना सोर पाड़ि‍ साँझ कहए
सुतैक इशारा दइए
तहि‍ना ने आँखिसँ
जागैक सुर-पता सेहो भेटए।
घड़ी कहाँ कहि‍यो बुझलक
साँझ-भोरक कि‍रदानी
एके चालि‍ये चलि‍-चालि‍
मुस्‍कुराइत गबए जि‍नगानी।
बि‍नु जि‍नगानीक जि‍नगी
मनुख ठठ्ठर कहबै छै।
जहि‍ना कौआ खएल मकै
खेत ठठेर कहबै छै।
))((


No comments:

Post a Comment