Pages

Sunday, April 8, 2012

गंगा नहाए :: जगदीश मण्‍डल


गंगा नहाए

गंगा नाहए सभ जाइ छथि‍, बाबू
अहँू कि‍अए ने जाए चाहै छी।
गहनक पूर्णिमा पड़ै छै
तइपर काति‍क मासो छी।
के सभ जा रहल छथि‍ बौआ
जा कऽ कनि‍ये भाँज लगाबह।
केना-केना के सभ जेता
झब दे कनी बुझने आबह।
पढ़ुआ काका, गुरु कक्काक
संग छि‍त्तन-मि‍त्तन दुनू भाँइ।
कनि‍याँ काकी सेहो जेती
भौजीक संगे लालो भाय।
बि‍नु संगीक संग गेने
ऐ उमेर बैमानी हएत।
तोरा केना असकरे कहबह
मनक संग प्रपंची हएत।
अहाँ वि‍चार फुट देखै छी
आरो लोकनि‍क आरो वि‍चार।
बीचमे नै बूझि‍ पबै छी
कहू कनी हृदैक वि‍चार।
गंगा तँ दुनि‍याँक धारा छी
बहए सदा सभ कोण।
घेर बान्‍हि‍ जँ अपने बुझब
थि‍क ई अपन मन।
दुनि‍याँक एक-एक मनमे
गंगा धार बनल छै।
जे जानै-पहचानै ओकरा
नि‍त स्‍नान करै छै।
   ))((

No comments:

Post a Comment