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Tuesday, April 10, 2012

अगहन :: जगदीश मण्‍डल


अगहन

ठोर रंगि‍ तर-तर करै छै
लोक देखि‍-देखि‍ मुँह दुसै छै।
लगनक आश छोड़ि‍-छाड़ि‍
कूदि-फानि‍ घर अबए चाहै छै।
कहि‍या धार कुटाएब हँसुआमे
कहि‍या धारक सान बनाएब
काति‍कक पुर्णिमो बीतल
कहि‍या देहमे पानि‍ चढ़ाएब।
तीन दि‍न, आठ अगहनमे बाॅकी
धड़फड़ बेसी, नै अगुताउ।
धीरजसँ सभ कि‍छु होइ छै
तइ बीच घरक काज सरि‍आउ।
गेल माघ पच्‍चीस दि‍न बॉकी
आबो कि‍अए छी मन्‍हुआएल।
आशा पाबि‍ मन कलशै छै
मौलाएलो गाछमे फूल लगै छै।
संगे मि‍ल‍ चलब कटैले
बच्‍चोकेँ कोरा लऽ लेब।
लोटामे पानि‍यो नै बि‍सरब
पनबट्टी सेहो लैये लेब।
रतुका नाच बनौआ होइ छै
दि‍न-दुपहरि‍या नाचब मैदान।
चौकीक तँ स्‍टेज नै छि‍ऐ
हँसबै, गेबै, मान-सम्‍मान।
    ))((

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