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Tuesday, April 10, 2012

विवेकानंद झा - कविता आ की सुजाता


बूझल नहि
कखन कत्तऽ आ कोना
हमरा आँखिमे बहऽ लागल
कविता
नदी बनि कऽ
भऽ गेल ठाढ़
पहाड़
करेजमे
जनक बनि कऽ
देखलिऐ
चिड़ै चुनमुन
नहि डेराइत अछि
आब
खेलाइत अछि
हमरा संग
गाछीक बसात
अल्हड़ अछि
मज्जर विहीन
भुखले पेट
नचैत अछि
झूमैत अछि
कारी मेघ माथपर
अकस्मात कानि उठैत अछि
सुजाता सुन्नरि
नोरसँ चटचट गाल

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