Pages

Tuesday, April 10, 2012

राजदेव मण्‍डल- नदीक माछ



नदीक कोखिसँ उछलल माछ
कऽ रहल हवामे नाच
यात्रा पहरक सगुनियाँ
छोड़ए चाहैत अछि जलदुनियाँ
देखऽ चाहैत अछि पवनदुनियाँ
नदीमे रहितो नहि पाबि सकल पानिक थाह
सूखलमे जएबाक हेतु खोजि रहल राह
करऽ चाहैत अछि समाजिक हित
बढ़बऽ चाहैत अछि नव दुनियाँसँ प्रीत
छोड़ि देत अपन पुरान बास
करत आब नव-नव प्रयास
खोजत नव-नव चीज
नव-नव बीज
लाभ होएत आकि हानि
जाँचत
केहेन अछि हवा पानि
रचत नव इतिहास
नूतन चास बास
परन्तु
सुनने छल ओ अपनहि कान
कहने रहथिन बूढ़-पुरान
‘‘कहियो नहि जाइहेँ ओहि दुनियाँ
ओहिठाम भरल अछि खुनियाँ।’’
किन्तु
नव अनुसंधान
माँगैत अछि जीवनदान
तखन भेटैत अछि सम्मान
कोटि-कोटिकेँ अन्न प्राण
मुदा ओ अछि अभागल
जलबून्द कड़ी अछि लागल
विफल भेल ओ छल बलमे
पुनः खसल ओहि नदीक जलमे
तद्यपि
बारम्बार कऽ रहल प्रयास
स्पर्शक हेतु मुक्ताकाश
छोड़ि देने अछि मोह एहि जलक
कऽ रहल कर्म चिन्ता नहि फलक।
बाट-बटोही
जाएब ओहि पार
खसौने घाड़
पुरान पहाड़
बरिसोसँ अछि ठाढ़
हमरा मार्गकेँ कएने अवरुद्ध
हड़पल भेल क्रुद्ध
कतेको लगेलहुँ बाँहिक जोर
दुखा रहल अछि पोर-पोर
इंच भरि नहि भेल टसमस
भऽ गेलहुँ हम बेबस
नहि कियो दऽ रहल अछि साथ
पहाड़ीपर पटकब आब माथ
डूबा देबैक हम खूनसँ
अपना घामक बूनसँ
विफल भेल छी देह जर्जर
पाछाँ सुनैत छी असंख्य स्वर
स्त्री-पुरुष, बाल अबाल
आबि रहल अछि तोड़ैत ताल
गाबि रहल अछि समूह गान
पुनः आएल शरीरमे जान
मनमे उठए लागल उफान
कतऽ गेल ओ पहाड़ी
काँटसँ भरल झाड़ी
आहि रौ तोरी ई कोन बात
गड़ि गेल भूमि आकि भागि गेल कात
आकि नभमे उड़ा देलक बसात
मार्ग भऽ गेल तत्क्षण समतल
चल-चल चल-चल
जय हो जनबल
ताकि रहल अछि बटोहीकेँ बाट
नहि कियो लगा सकैत अछि टाट।

No comments:

Post a Comment