झगड़ा
भाँग पीबि भकुआ शिव
चुप भऽ बैसला आसन।
धो-धा सिलौट-लोढ़ी
पार्वती लेलनि चढ़ा।
लग आबि पाँजर बैसते
बीन-बिन्नी उठलनि मन।
नजरि उठा देखते
कड़कि बजलनि मन।
सिहरि छाती डोलिते
थर-थर कपलनि तन।
कलपैत मन खिसिया
अधे-छिधे पुछल प्रश्न-
“अहाँ कहू केकर छी प्रेमी
गंगा आकि अपन।
सिर सजौने छी गंगाकेँ
पतिअबै छी हमरा।
पुरुखक कोनो ठेकान नै
बूझि पड़ैए हमरा?”
कनखिया शिवजी बजलाह-
“भावक लेल प्रश्न भावसँ
उठाउ सदिखन आगू।
चिन्मय रूप समेटि हृदए
बढ़ाउ डेग सदि आगू।”
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