कौखन हमरा सभक मौन आक्रामक बनि जाइछ
आ विवेक सहजहि कोनो खिड़कि दऽ उड़िया गेल रहैछ तावत धरि
किछु निराश क्षणक प्रतीक्षा फेर ओकरा बजा लैछ
आ तावते ओकर काया–कल्प भऽ जाइछ
सभ मनुपुत्र मोम भऽ जाइत छथि एक–दू क्षणक जिनगीमे ।
कहियो चौंकल अछि अहाँक दुनू तरहत्थी?
आ तदुपरान्त किताब बनाकऽ पढ़लहुँ अछि ओकरा ः
तहिए गिरह बान्हि गेल हमर बातक
निर्जीब भेल आँखिकेँ निहारैत रहि जाएब अहाँ
पलक टो–टो कऽ फुसियाही आवेश करैत ।
मोने–मोने
गुनैत ।।
एक क्षण बाद
हाथ अपनाकेँ समेटि कऽ अहाँक माथपर चढ़िकऽ बाजत नियामकसँ
चकित छी अहाँक दुष्ट व्यवहारपर
आ ओ ओहि एक दिन सभसँ बजै छथि
भ्रम आ प्रवंचनाक कथा सएह पुछलक अछि की?
केहन टाँट सत्यक राखि देलियह अछि सोझामे
एकोबेर चुमि लैह टाँट भेल गर्दनि, आ माथ, आ मुँह
एहिना बुझबहक की
जीबैत मुस्किआइत गुलाबमे कांट ने होइछ किदन ।
करन्तमे गछारल अहाँक हीरक, मुक्ता, रुपरानी वा जे किछु
ठीके बड़ कोमल आ सुन्दर अइ
मुदा ततबे सत्य छैक विधान आ परम्परा
ततबे कटु आ अनिवार्य ।
उधियाइत विवेककें गछारिकऽ
मनुपुत्र सुखी भऽ पाएब निर्बिवाद ।
दुष्टता, भ्रम, प्रवंचना
आ एकरा सभक संज्ञामात्र
उधियाइत कोनो गैस थिक ।
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