एक मुट्टी अखरा बालु फँकबाक बाध्यता जतबे छोट भऽ सकैछ,
ततबे विराट आ डूबल अछि हमरा घरमे एक–एकटा सीताक आक्रोश,
आब बुझल जे सीता माने कोन दुःख ।
एकटा दृष्टान्त
आ आओर किछु नहि
मात्र एकटा निर्मम दृष्टान्त
चाहिए कऽ एहि लोककेँ, समाजकेँ
ओहि एकटाक पाछाँ सहस्त्रो कत्ले आम होइत
रहै निर्विध्नक....
जीह नहि टकसैत छैक एखनि ।
एकटा दूरन्ति परम्परा किंबा रीति सहैत,
बकार बन्न केने छी हम–अहाँ आ सभ
अयाची हड्डी लुटौलनिहेँ, सेहो ठीक
एकाएकी घाब बनाओल जाइत अंग अंगकेँ निर्निमेष तकैत रहू
तखनि, सभटा ठीके–ठीके
समाज चाहैए जे ओकरामे रहनिहार लोथ भऽ जाए
ओकर एक एकटा प्राणी बीत राग बनल रहए आजीव,
आ संघर्ष करैत रहए अपना गराक घेघसँ ।
अहाँ अपनाकें अपने परिबोधि लिअ एहिना
कतेक छोट–छीन जीवन सामान्य रुपेँ बितैत–बितैत
कौखन मनोरंजन हेतु आ कौखन अज्ञात, अनचेकामे
कतेक कीड़ा–फतिंगा पोसि वा पीचि देल जाइछ ।
सरिपहुँ तन्नुक अइ ई जीब । लजबिज्जी ।
कोनो ने,
ई सब कोनो बात छैक,
एतेक निश्चय राखू जे परिबोधि नहि रहल छी हम अहाँकेँ,
किएक तँ अहाँ आरो भयाक्रान्त कऽ देब
अहूँ सएह कहैत छी कहि ।
एतबे बुझि राखू जहियासँ अहाँ दृष्टान्ते बनल छी
हमरा अहाँसँ सहानुभूति अछि ।
मनुक्खक पीड़ासँ मनुक्खक सहानुभुति होइ
ककरो दूटा आँखि पनिछा जाइ
एहिसँ पैघ जीवनक कोन उपलब्धि भऽ सकैछ ?
हम किछुटा नहि कहब ।
आत्म हत्या दूबेर प्रायः नहि भऽ सकैछ ,
ई तँ महज मामुली बोध थीक
ओना अहाँक कोनो बिकल्प हमरा नीक लागत ।
जखन जीवन माने तनुक
तँ की हर्ज एकटा द्दृष्टान्ति बनल रही ?
ओना हम पुछबाक व्याज मात्र करैत छी ।
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