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Thursday, April 26, 2012

जि‍नगीमे जे :: जगदीश प्र. मण्‍डल


गीत-

जि‍नगीमे जे संग पूड़ैए
संगी वएह कहबैत रहैए।
संग ससरि‍, घुसुकि‍-पुसकि‍
प्रेमी मि‍त्र कहबैत रहैए।
जि‍नगीमे जे संग पूड़ैए
संगी वएह कहबैत रहैए।
मि‍त्र बनि‍ मैत्रेयी पकड़ि‍
जि‍नगीक झूल झूलैत रहैए
लेख-जोख कर्मक करैत
गुण गुण मन गुणैत रहैए।
जि‍नगीमे जे संग पूड़ैए
संगी वएह कहबैत रहैए।
संगी, प्रेमी दोस्‍त भजार
बैसि‍ बाट बति‍आइत रहैए।
संग-कुसंग, कुसंग-संग
नीड़ नोर नि‍नि‍आइत रहैए।
जि‍नगीमे जे संग पूड़ैए
संगी वएह कहबैत रहैए।
संग ससरि‍ घुसुकि‍-पुसुकि‍
प्रेमी मि‍त्र कहबैत रहैए।

))((

रंग सि‍याही :: जगदीश प्र. मण्‍डल


गीत-

रंग सि‍याही रोशनाइ बनि‍-बनि‍
रेहे-रेहे सियाह घोराइ छै।
भाव-अभाव कुभाव बनि‍-बनि‍
गीत प्रेम लेखाइत रहै छै।
रंग सि‍याही रोशनाइ बनि‍-बनि‍
रेहे-रेहे सि‍याह घोराइ छै।
गहराएल गहन पुनि‍ चान जहि‍ना
इजोत-अन्‍हार बनहाएल छै।
तहि‍ना ने दि‍नो-दीनानाथ
भक-इजोत भऽ कनखि‍आइत रहै छै।
रंग सि‍याही रोशनाइ बनि‍-बनि‍
रेहे-रेहे सि‍याह घोराइ छै।
कहि‍ रोशन टघरि‍ सि‍याह
लेख कर्म लि‍खैत रहै छै।
ति‍ले-ति‍ल ति‍लकि‍ जअ जहि‍ना
हवन कुंड जरैत रहै छै।
रंग सि‍याही रोशनाइ बनि‍-बनि‍
रेहे-रेहे ि‍सयाह घोराइ छै।
भाव-अभाव कुभाव बनि‍-बनि‍
गीत प्रेम लि‍खाइत रहै छै।

))((

देहसँ नमहर टाँग :: जगदीश प्र. मण्‍डल


गीत-

देहसँ नमहर टाँग जेकर
आड़ि‍-धूर वएह कूदि‍ टपै छै।
टपि‍ टपान हाथो कहैत
राही राह पकड़ि‍ चलै छै।
देहसँ नमहर टाँग जेकर...।
टाँग जेकर हाथी सदृश
बालु ऊँट कहाँ बुझै छै
चाि‍ल सुचालि‍ पकड़ि‍-पएर
रच्‍छा अपन करैत रहै छै।
देहसँ नमहर टाँग जेकर...।
मुसुक मन मारि‍ मुस्‍की
मने-मन मुसकान भरै छै।
हहा-हहा हषवि‍ष अबैत
कूदि‍-फानि‍ कहैत रहै छै।
देहसँ नमहर टाँग जेकर छै...।

))((

उठि‍ते आगि‍ :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल


गीत-

उठि‍ते आगि‍ तनकि‍ मन
मुक्का छाती मारि‍ कहै छै,
ताल-ताल मि‍ला बेताल
संग बाँहि‍ आवाज भरै छै।
उठि‍ते आगि‍ तनकि‍ मन....।
चढ़ि‍ते काति‍क गाछी-बि‍रछी
गाम-गाम अखाड़ सुनाइ छै,
जाड़-हाड़ संग मि‍लि‍ दुनू
जड़ि‍आएल जाल तोड़ैत रहै छै।
उठि‍ते आगि‍ तनकि‍ मन....।
सुषुम तेल तरहत्‍थी जहि‍ना
बच्‍चा सि‍र धड़ैत रहै छै
धरि‍ते तेल पकड़ि‍ केश
अगि‍आइत आगि‍ पाबैत रहै छै।
उठि‍ते आगि‍ तनकि‍ मन,
मुक्का छाती मारि‍ कहै छै।
ताल-ताल मि‍ला बेताल
संग बाँहि‍ आवाज भरै छै।

))((

घात लगौने :: जगदीश मण्‍डल


गीत-

घात लगौने घात लगल छै
फल करनी अवघात मढ़ल छै
घात लगौने घात लगल छै
करनी फल अवघात मढल छै।
घात लगौने....।
ति‍नकमि‍या बंशी बनि‍-बनि‍
पानि‍ बीच घति‍या पड़ल छै।
गंध बोर सुगंध कहि‍-कहि‍
मुँह मध्‍य अवघात करै छै।
घात लगौने घात लगल छै।
बि‍नु अवघाते होइत रहै छै
गलफड़ घात लगैत रहै छै।
ही-जी छि‍छि‍या-छि‍नि‍या
उनटि‍-सुनटि‍ सुनगैत रहै छै।
घात लगौने घात लगल छै।

))((

हरा-पड़ा ढेरि‍आएल :: जगदीश मण्‍डल


गीत-

हरा-पड़ा ढेरि‍आएल ढेर
भोर-साँझ भूमकैत रहै छै।
भोर-साँझ....।
जइ डीह चढ़ि‍ नढ़ि‍या भूकै
उसरन-वि‍सरन होइत रहै छै
उसरन-वि‍सरन होइत रहै छै।
हरा-पड़ा...।
तान मारि‍, मारि‍ तानि‍ कि‍यो
छि‍नकि‍-छि‍नकि‍ छि‍छि‍आइत रहै छै।
छि‍नकि‍-छि‍नकि‍ छि‍छि‍आइत रहै छै।
हरा-पड़ा...।
बान्‍हल दौन कराम जहि‍ना
उरदा-खेरहा दौन करै छै
आसा-आस लागि‍ लगौने
ति‍ले-ति‍ल ति‍लमि‍लाइत चलै छै।
हरा-पड़ा ढेरि‍आएल ढेर
भोर-साँझ भूमकैत रहै छै।
भाेर-साँझ...।

))((

Tuesday, April 17, 2012

बीटगरहा :: जगदीश प्र. मण्‍डल

बीटगरहा

टुकड़ा-टुकड़ी बनि‍ अंक जहि‍ना
भूमि‍ भाव संग चलए लगै छै।
अकास-पताल बीच अंतर रहि‍तो
हि‍लमि‍ल-झि‍लमि‍ल करए लगै छै।
जूड़ि‍-जूड़ि‍ अक्षर शब्‍द सधै छै
अंक कूदि‍ गुन-भाग करै छै।
चालि‍-ढालि‍ दुनूक दू रहि‍तो
प्रेमक प्रेमी रूप धड़ै छै।
चालि‍ शि‍कारी घोड़ा जहि‍ना
कूदि‍-फानि‍ रस्‍ता बनबै छै
इकाइयो दहाइ चलि‍ तहि‍ना
गरहनि‍ बीट गरहनि‍ रचै छै।
पुरजा-उरजा बनि‍-बनि‍ अंक
पौआ-अधपइ कनमा-कनइ छै।
अणु-परमाणु जुग जे बनौ
अंक अंक भकराड़ बनल छै।
रूप-गुण सभ ओहि‍ना-ओहि‍नी
मूल तत्‍व आधार बनल छै।

बि‍नु बीटे ठाढ़ केना रहतै
नमगर-छड़गर कड़ची बाँस।
वंशो-वृक्ष तहि‍ना रहै छै
धड़ि‍-धीर धेने छी आस
अटपट-लटपट खेल चलै छै
आमक गाछ महकारी फड़ै छै
गंध आम पसारि‍-पसारि‍
मीठ-तीत सेहो बनबै छै।
भाव-भूमि‍ भवजाल पसारि‍
नजरि‍ खि‍रा ताकैत रहै छै।
दौजी-मुड़हन समेटि‍-समेटि‍
हवा बीच उड़बैत रहै छै।
बि‍र्ड़ो बीच बौआइत-ढहनाइत
देखि‍नि‍हारो देखैत रहै छै।
पकड़ि‍ पेट खोंइचा छोड़ि‍
दूधक फेड़-फाड़ देखै छै।
मुदा तैयो, आंगुर चुट्टा बनि‍
बीछि‍-बीछि‍ बीआ पकड़ै छै।
गनि‍-गनि‍ फुटा-हटा
धरतीक भाव बुझै छै।
सुरकुनि‍या चालि‍ पकड़ि‍-पकड़ि‍
समाढ़-जाल तोड़ैत चलै छै।
जहि‍ना कोंपर रूप बाँस बनि‍
टोपी खोलि‍ अकास धड़ै छै।
पाछू-पछुआ कड़ची सि‍रजि‍
नाओं बाँस धड़बए लगै छै।
आशा-आस लगा एक-दोसर
झूला जि‍नगी झूलए लगै छै।
सोधि‍-ओधि‍ सि‍रजि‍ कोंपर
बीट वंश कहबए लगै छै।
अंति‍म छोर लीला जि‍नगीक
आशा आस लगबए लगै छै।
फड़ि‍-फुला हरि‍आ-हरि‍आ
परि‍वार-गाम बनबए लगै छै।
सर्ग-नर्क उतरि‍ अकास
बोड़ि‍या-बि‍‍स्‍तर समटए लगै छै।


(ई 'बीटगरहा' कवि‍ता श्री रामभरोष कापड़ि‍ भ्रमर जीकेँ समर्पित, -जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

हे बहि‍ना :: जगदीश प्र. मण्‍डल


गीत-

हे बहि‍ना केना कऽ जेबइ ओइ घरबा
थुक फेकि‍ जइ घर नि‍कललौं
केना जेबइ ओइ दुअरबा हे बहि‍ना
केना कऽ जेबइ ओइ घरबा
थुक फेकि‍...।
केना जेबइ....।
जनि‍-जनि‍ बीआ वाणी-बानि‍‍
लतरै-चतरै छै फुलबतबा
सुबास-कुबास बनि‍-बनि‍
सभ कि‍छु देलि‍ऐ गमबा
हे बहि‍ना केना कऽ जेबइ ओइ घरबा
पुरुखपात रहलै ने एक्को
करतै के बगबटबा
घरहरि‍या एको ने बॅचलै
बन्‍हतै के घरमरबा

हे बहि‍ना केना कऽ जेबइ ओइ घरबा।

Sunday, April 15, 2012

मि‍झाइत दीप :: राजेश मोहन झा ‘गुंजन'


मि‍झाइत दीप

बि‍नु वातीक दीप बनल छी
मोती बि‍नु ति‍रस्‍कृत सीप बनल छी
कहब की बि‍नु टाकाक गरीवक बेटी
ने ताज ने राज महीप बनल छी
साज सौन्‍दर्य रहि‍तो मुदा
बि‍नु लक्ष्‍मी शारदा की करती
मोनक बेथा ककरासँ कही
ति‍लक सि‍न्‍धुक ि‍नर्जन द्वीप बनल छी
आत्‍मो भावे तन अछि‍ जहि‍ना
बि‍नु सोनक श्रृंगार अछि‍ तहि‍ना
जनकक हृदए पझाइत भुस्‍सी सन
सौराठ-सभामे अपरतीप बनल छी
नोरक धारसँ आँखि‍ सुरवाएल
वि‍द्या गुणक पुष्‍प मौलाइल
ऐ धनक सवंतमे
जेठक दुपहरि‍याक वि‍रह गीत बनल छी
आगाँ बढ़ू नव तरूण सभ मि‍लि‍ कऽ
नै मौलाइत स्‍वर्ण पुष्‍प धन बि‍नु
मि‍झाइत दीपमे भरू सि‍नेह-सर
करू आलोकि‍त बुझब अकासदीप बनल छी.....।

दौगल चलि जाएब गाम :: किशन कारीगर


दौगल चलि जाएब गाम

मनुक्ख दौग रहल अछि मचल अछि आपा-धापी
जतए केकरो कियो ने चिन्ह रहल अछि
एहेन नगर आ पाथर हृदैसँ दूर
एखने होइए जे दौगल चलि जाएब गाम।।

लोहाक छड़ आ सीमेंट कंक्रीटसँ बनल
ओना तँ ई एकटा आधुनिक महानगर अछि
मुदा शहरक ऐ‍ आपा-धापीमे
मनुक्खक हृदए जेना पाथर भऽ गेल अछि।।

किएक मचल अछि आधुनिकताक ई हरबि‍र्ड़ो?
कि भेटत ऐ‍सँ कियो ने किछु बूझि रहल अछि
जेकरे दूखू रूपैयाक ढेरी लेल अपसियाँत रहैत अछि
पाथर हृदए मनुक्ख मानवताक मूल्य केने अछि जीरो।।

लिफ्ट लागल उ दसमंजिला मकान
एक्के फलैटपर रहितौ लगैत छी अनजान
ओ अड़ोसी हम पड़ोसी मुदा
एक दोसर के नै कोनो जान-पहि‍चान।।

कहू एहेन कंक्रीटक शहर कोन काजक
आधुनिकताक काल कोठरी अछि साजल
ऐ‍ चमचमाइत कोठरीमे कियो ने केकरो चिन्ह रहल अछि
रूपैयाक खातिर आबक मनुक्ख की कि ने कऽ रहल अछि।।

इति‍यौत-पितियौत ममियौत-पिसियौत जेकरा देखू
अपनेमे मगन चिन्हा परिचेसँ कोन काज
आधुनिकताक काल कोठरीमे आब
अनचिन्हार भऽ गेलाह जन्मदाता बूढ़ माए-बाप।।

शहरक एहेन अमानवीय आपा-धापी देखि‍ कऽ
पसीज गेल हमर हृदए
एहेन अनचिन्हार नगर छोड़ि कऽ मोन होइए
एखने आब दौगल चलि जाएब गाम।।

हे यौ भलमानुस आधुनिक मनुक्ख
एहेन अनचिन्हार नगर ने नीक
ऐ‍ कंक्रीटक महलसँ एक बेर तँ देखू
गामक कोनो टूटली मरैया बड्ड नीक।।

मनुक्ख एक दोसरकेँ चिन्ह रहल अछि
चिड़ै चुनमून चॅू चॅू कए रहल अछि
रस्ता-पेरा निश्छल प्रेमक धार बहि रहल अछि
हरियर-हरियर खेत-पथार आइ सोर कऽ रहल अछि।।

टूटलाहा टाट खर-पतारक किछु घर
जतए नै कियो अनचिन्हार नै कोनो डर
चौबटिया लग फड़ैत अछि खूम आम
एहने नगरक औ बाबू लोग कहैत छैक गाम।।

कटिहारी :: गजेन्‍द्र ठाकुर

कटिहारी

कनकनी छै बसातमे
हाड़मे ढुकि जाएत ई कनकनी
पोस्टमार्टम कएल शरीर जे राखल अछि
सातटा मोटका शिल्लपर, जड़त कनीकालमे
गोइठामे आगि जे अनलनि‍हेँ सुमनजी
राखि देल नीचाँ
कनकनाइत पानिमे डूम दऽ
गोइठाक आगिसँ आगि लऽ
शरीरकेँ गति- सद्गति देबा लेल
कऽ देलनि‍ अग्निकेँ समर्पित
तृण, काठ आ घृत समेत
घुरि कऽ जएताह सभ
लोह, पाथर, आगि आ जल लांघि, छूबि
डेढ़ मासक बच्चाकेँ कोरामे लेने माएकेँ छोड़ि
घर सभ घुरत
एक्कैसम शताब्दीक पहिल दशकक अन्तिम रातिक भोरमे
मुदा नै छै कोनो अन्तर
पहिराबा आ पुरुखपातकेँ छोड़ि दियौ
महिलाक अवस्था देखू
ऐ‍ कनकनाइत बसातसँ बेसी मारुख
हाड़मे ढुकल जाइत अछि
कमला कात नै यमुनाक कात
हजार माइल दूर गामसँ आबि
मिज्झर होइत अछि खररखवाली काकीक श्वेत वस्त्र
साइठ साल पूर्वक वएह खिस्सा
वएह समाज
मात्र पहिराबा बदलि गेल
मात्र नदी-धार बदलि गेल

सातटा शिल्लपर राखल ओ शरीर
अग्नि लीलि रहल सुड्डाह कऽ रहल
एकटा परिवार फेरसँ बनबए पड़त
आ तीस बर्खक बाद देखब ओकर परिणाम
ताधरि हाड़मे ढुकल रहत ई सर्द कनकनी
ऐ‍ बसातक कनकनीसँ बड्ड बेसी सर्द

...........

गोपीचानन, गंगौट, माला, उज्जर नव वस्त्र
मुँहमे तुलसीदल, सुवर्ण खण्ड गंगाजल
कूश पसारल भूमि तुलसी गाछ लग
उत्तर मुँहे
पोस्टमार्टम कएल शरीर
सुमनजी सेहो नव उज्जर वस्त्र पहिरि
जनौ, उत्तरी पहिरि, नव माटिक बर्तनक जलसँ
तेकुशासँ पूब मुँहे मंत्र पढ़ै छथि
आ ओइ जलसँ मृतककेँ शिक्त करै छथि
वामा हाथमे ऊक लऽ गोइठाक आगिसँ धधकबैत छथि
तीन बेर मृतकक प्रदीक्षणा कऽ
मुँहमे आगि अर्पित होइत अछि
कपास, काठ, घृत, धूमन, कर्पूर, चानन
कपोतवेश मृतक

पाँच-पाँचटा लकड़ी सभ दैत छथि
कपोतक दग्ध शरीरावशेष सन मांसपिण्ड भऽ गेलापर
सतकठिया लऽ सातबेर प्रदक्षिणा कऽ
कुरहरिसँ ओइ ऊकक सात छौसँ खण्ड कऽ
सातो बनहनकेँ काटि
सातो सतकठिया आगिमे फेकि‍
बाल-वृद्धकेँ आगाँ कऽ
एड़ी-दौड़ी बचबैत
नहाइ लेल जाइ छथि
तिलाञ्जलि मोड़ा-तिल-जलसँ
बिनु देह पोछने
आ फेर मृतकक आंगनमे
द्वारपर क्रमसँ लोह, पाथर, आगि आ पानि
स्पर्श कऽ घर घुरि जाइ छथि
एक्कैसम शताब्दीक पहिल दशकक अन्तिम रातिक भोरमे।

अखड़ा जि‍नगी :: जगदीश मण्‍डल


अखड़ा जि‍नगी

अखड़ा जि‍नगी सखड़ा बनि‍-बनि‍
शुद्ध-अशुद्धक भेद वि‍लीन भेल।
शक्‍ति‍ चढ़ल जहि‍ना शीशा
नयन ज्‍योति‍ बदलि‍ चलि‍ गेल।
आशा-आश लगौने मनमे
फल-कुफल बदलि‍ केना गेल।
नै बूझि‍ समझि‍ नै पेलौं
बाटे-घाट बदलि‍ चलि‍ गेल।
अखड़ा जि‍नगी सखड़ा बनि‍-बनि‍
शुद्ध-अशुद्धक भेद वि‍लीन भेल।
जल भरल लोटा अछींजल
शक्‍ति‍ क्षीण होइत केना गेल।
शक्‍ति‍ क्षीण होइत हबाइत
अवगुण-गुण बदलि‍ केना गेल।
मानि‍ मान ससरि‍ सामान
खाली-खाली बनि‍ केना गेल।
अखड़ा जि‍नगी सखड़ा बनि‍-बनि‍
शुद्ध-अशुद्ध बीच बदलि‍ केना गेल
मानने देव नै तँ पाथर
जुग-जुगसँ सुनैत एलौं।
पाथर बीच देव वि‍राजए
पानि‍-हवा लुढ़कैत एलौं।

उड़ि‍ धरती-अकास बीच

उड़ि‍-उड़ि‍ उड़ि‍आइत गेलौं

पूर्बा-पछबा सम्‍हारि‍ पाबि‍ नै

चि‍न्‍ह-पहचि‍न्‍ह वि‍सरैत गेलौं।

अखड़ा जि‍नगी सखड़ा बनि‍-बनि‍

आश-नि‍राश खखराइत पेलौं।

कर्मयोगी :: शि‍वकुमार झा ‘टि‍ल्‍लू’

कर्मयोगी

ने भगता योगी आ ने डलबाह
हरखक तरंग नै, नै वि‍पत्ति‍क आह
पहि‍लुक दर्शन कहि‍या भेल
नै अछि‍ मोन
जहि‍यासँ देखैत छि‍यनि‍
वएह गंभीर मुस्‍की..
ककरो उपहास नै
ककरो परि‍हास नै
नै ठोरपर वसन्‍त गान
नै हि‍अमे ग्रीष्‍मक मसान
नेना सभक प्रि‍य अध्‍यापक
कर्मयोगी- अपकल
कोना भेलनि‍ पि‍तामह चूकि‍?
रीति‍क कालपुरुखक नाओं-
कामदेव!!!
कोनो नै काम
भलमानुष नि‍ष्‍काम
तेसर पहरक वि‍झनीक बाद
जगतधात्रीक नि‍त्‍य दर्शन
तामझामक गाममे रहि‍तो
त्रि‍पुंडसँ मुक्‍त
छुच्‍छे हाथे तर्पण
आब की मंगैत छथि‍ बाबा?
झबरल आंगनमे शक्‍ति‍ सहचरी
जाइ रवि‍-शशि‍क कि‍रणकेँ
आत्‍मसात् करबाक लेल
लोक करैछ अनर्गल प्रलाप
व्‍यर्थ कुटि‍चालि‍ रचैछ
चोरि‍ कऽ आडंवर करैछ
तनयक रूपमे ओ दुनू
बाबाक आंगनक श्रवण कुमार
अचला चंचला बनि‍
देलनि‍ कन्‍याक उपहार
दु:खक सोतीमे
जखन अकुलाइत छैक मनुक्‍ख
तखन आस्‍ति‍कता जगैछ भूख
मुदा! ति‍रपि‍त बाबा
नै करैत छथि‍ भगवानसँ छल
सुरधामे जल
मन नि‍रमल....
समाजमे छन्‍हि‍ शीतलताक आह
सदेह कवि‍ नै
तखन वैदेहीक चाह?
अपने नेपथ्‍यमे रहि‍
नाटकक कएलनि‍ ि‍नर्देशन
देसि‍ल वयनाक प्रति‍
कर्मक गति‍ अर्पण
एकाध प्रहसन लि‍खि‍
अकथ्‍य कवि‍ता गढ़ि‍
कतेक आजाद भऽ गेल चि‍न्‍हार
मुदा! इजोतक स्‍त्रोतक पि‍रही अन्‍हार
कोनो नै छन्‍हि‍ छोह
सबहक उत्‍कर्ष हुअए
यएह आश, यएह मोह
की ब्राह्मण की अछोप
की धानुक की गोप
सबहक बाबा......
जे गाछ, छि‍अए छाहरि‍
वएह उतुंग
वएह श्रंृग
सि‍क्‍कठि‍ हुअए वा नरकटि
स्‍वीकार करैए पड़तनि‍ समाजकेँ
बाबा सन चेतनशील मनुक्‍खकेँ
जे संस्‍कार लुटाबए
सबहक कल्‍याणक लेल
अन्‍तर्मनसँ सोहर गाबए...।

Wednesday, April 11, 2012

बाढ़ि‍मे सभ :: जगदीश मण्‍डल


गीत

बाढ़ि‍मे सभ कि‍छु दहा गेल,
मीत यौ, बाढ़ि‍मे सभ कि‍छु दहा गेल।
मुँह-दुआरि‍ परदा दहा गेल
दहा गेल सभ कुटुम-परि‍वार
हि‍त-अपेछि‍त सेहो भसि‍या गेल
भसि‍ गेल सभ अाचार-वि‍चार।
बाढ़ि‍मे सभ कि‍छु दहा गेल
मीत यौ, जि‍नगीक संग जि‍नगी हरा गेल।
गुल्‍ली–डन्‍टा खेल दहा गेल
दहा गेल दुआर दुआरधार
चि‍न्‍ह पहचि‍न्‍ह सेहो दहा गेल
कखनी घुमतै दुआर-दुआरधार।
कानि‍ कलपि‍ केकरा के कहबै
अपने बेथे सभ बेथाएल।
सुनत केकर के दुख नचारी
अपने मनमे सभ बौड़ाएल।
मीत यौ, बाढ़ि‍मे सभ कि‍छु दहा गेल।
         ))((

प्रीति‍क रीति‍ :: जगदीश मण्‍डल


गीत

प्रीति‍क रीति‍ कुरीति‍ बनल छै
सुबोध सुरीि‍त सुदि‍न केना पेबै।
थाल-कीच घर-दुआर सजल छै
फल वृक्ष कल्‍प कहि‍या देखबै।
हे बहि‍ना, सुरति‍ केना बदलबै
प्रीति‍क रीति‍ कुरीति‍ बनल छै
सुबोध सुरीि‍त सुदि‍न केना पेबै।
जहर भरल फुफकार छोड़ि‍-छोड़ि‍
गहुमन-नाग लपकैत रहै छै।
करम-भाग मन-मनतर रटि‍-रटि‍
अगुआ-पछुआ धड़ैत रहै छै।
मन-मनुख मानव केना बनबै
प्रीति‍क रीति‍ कुरीति‍ बनल छै
सुरीति‍ सुबोध सुदि‍न केना पेबै।
       ))((

संच-मंच :: जगदीश मण्‍डल


गीत

संच-मंच रहए कहाँ दइए
यार यौ, संचमंच रहए कहाँ दइए
मकड़ी फड़ खुआ-खुआ
टीक पकड़ि‍ खिंचैत रहैए
भजार यौ, संच-मंच रहए कहाँ दइए।
चि‍ड़चि‍ड़ी छीट-छीट कखनो
ओझरी टीक लगबैए।
पोझरी पकड़ि‍-पकड़ि‍
खेल नाच लगबैए।
यार यौ, संच-मंच रहए कहाँ दइए।
कहि‍यो रंग कहि‍यो कादो
सभपर सभ फेकैए।
रंग-सि‍याही बदलि‍
आँखि‍ दुइर करैए।
यार यौ......।
    ))((

खेल खेलौना :: जगदीश मण्‍डल


गीत
खेल खेलौना खेल खेलै छी
मने-मन बपहारि‍ कटै छी।
खेल खेलौना खेल खेलै छी।
एक खेलौना छी मन रंजन
दोसर जीवन धार बहाबै
कदम डारि‍ झुलि‍ झूला
जमुना धार महार कहाबए।
नै हँसि‍ कानि‍ नै पाबि‍
मन-मरदन करैत रहै छी
खेल खेलौना खेल देखै छी
मने-मन बपहारि‍ कटै छी।
      ))((

हूसि‍ गेल :: जगदीश मण्‍डल


हूसि‍ गेल

हूसि‍ गेल सभ खेल खेलौना
हूसि‍ गेल सभ मन-वि‍चार।
जीवन संग जि‍नगी पि‍छड़ि‍
ससरि‍ गेल इजोत-अन्‍हार।
अन्‍हारे उपकि‍ अनचि‍न्‍ह
अन्‍हार केना अधला लगतै।
इजोत-अन्‍हार भेद बि‍नु बुझने
राति‍-दि‍न भजए लगलै।
जेकरे दि‍न तेकरे राति‍
राति‍येक दि‍न कहाबए लगलै।
दहि‍ना-वामा रंग-सि‍याही
नव-नव शब्‍द गढ़ए लगलै।
जहि‍ना सि‍याह सि‍याही बनि‍
हरि‍अर-लाल कहाबए लगलै।
कोरा कागज ऊपर ससरि‍
हारि‍-जीत लि‍खए लगलै।
ऊपर उठा, उठा ऊपर
खेल धोबि‍या खेलए लगलै।
घुमा-घुमा, नचा-नचा
घाट धार पटकए लगलै।
मड़ू-अधमड़ू बना-बना
घुमा-घुमा फेकए लगलै।
गाड़ीक अगुआ पछुआ पकड़ि‍
जुआ जोति‍ खिंचए लगलै।
रंग-बि‍रंग जुआ बनि‍-बनि‍
खेल-खेलौना कहबए लगलै।
हूसि‍ गेल सभ खेल खेलौना
हारि‍-हारि‍ मन तड़पए लगलै।

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एकटा बताह :: जगदीश मण्‍डल


एकटा बताह

जे जनकक संतान कहि‍यो
कृषि‍ वृत्ति‍ कि‍सान छलाह।
कृषि‍ कुशल कहि‍-कहि‍
दि‍न-राति‍ मलड़ैत छलाह।
भुमकम बाढ़ि‍ रौदीक भार सहि‍
जीवन-यापन करैत छलाह।
वेद-बखान नि‍त-प्रति‍दि‍न
साँझ-भाेर रटैत छलाह।
गति‍ समए केर बीच-बीच
दोरस हवा उपकए लगल।
नव-पुरान बीच-बीच
रंग-रूप बदलए लगल।
रंग-रूप बीच रंग भेद
पनपि‍-पनपि‍ पनपए लगल।
सोहरि‍-सोहरि‍ उठि‍-उठि‍
धन-गर्जन करए लगल।
साहोर‍-साहोर‍ मंत्र जपि‍
डंका-ठनका बचए लगल।
मानक मान समान लि‍अए
झड़कि‍-झड़कि‍ झड़कए लगल।
कुहरि‍-कुहरि‍ कलपि‍-कलपि‍
छाउर-आगि‍ खसए लगल।
जेना-जेना आगि‍ मड़ि‍आएल
शक्‍ति‍ श्रम घटए लगल।
घटबी पुरबै पाछू बेहाल
रीन-पेंइच फँसए लगल।
रीनि‍याक रीन कुरीन बनि‍-बनि‍
तरे-तरे घुसकए लगल।
पहुँचीसँ बाँहि‍ पकड़ि‍
धोबि‍या खेल खेलए लगल।
दसक दाह सम्‍हारि‍ पाबि‍ नै
मन-मनतर मथए लगल।
जे कहि‍यो मि‍थि‍ कहाबए
क्षीण शक्‍ति‍ कहबए लगल।
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