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Tuesday, August 28, 2012

दि‍न-राति‍क खेल :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल

दि‍न-राति‍क खेल

अपने हाथक खेल मीत यौ
अपने हाथ खेल।
संगे-संग दुनू चलैए।
इजोत-अन्‍हार बनैत रहैए।
हँसि‍-हँसि‍ कानि‍-कानि‍
पटका-पटकी करैत रहैए।
एके गाछक डारि‍ छी दुनू
सुफल-कुफल फड़ैत रहैए।
रस रंग सुआद गढ़ि‍-गढ़ि‍
तीत-मीठ बनबैत रहैए।
अपने हाथक खेल मीत यौ
संगे-संग खेलैत रहैए।
लपकि‍-लपकि‍ कतौ-कतौ
इजोत-अन्‍हार दबैत रहैए
पीट्ठी चढ़ि‍ पीठि‍या-पीठि‍या
एेरावत सजबैत रहैए।
तँए कि‍ अन्‍हार हारि‍ मानि‍
हरदा कहि‍यो कबूल करैए।
जहि‍ना झपटि‍ बि‍लाई बाझकेँ
जि‍नगीक खेल देखबैत रहैए।
अपने हाथक खेल मीत यौ
संग मि‍लि‍ संगे चलैए।
मंत्र एक रहि‍तो दुनूक
वि‍धा दू कहबैत चलैए।
वि‍धि‍-वि‍धान रचि‍-बसि‍ दुनू
गद्य-पद्य गढ़ैत रहैए।
चढ़ि‍ गाछ तनतना-तनतना
गीत-कवि‍त्त सुनबैत रहैए।
ताना दऽ दऽ वि‍हुँसि‍-वि‍हुँसि‍
मारि‍ तानि‍ हँसि‍-हँसि‍ कहैए।
एके गाछक खेल मीत यौ
संगे मि‍लि‍ दुनू खेलैए।
बजा पीहानी नाचि‍-नाचि‍

रंगमंच दुनि‍याँ सजबैए।

कंठ कोकि‍ल कवि‍त्त कवि‍

कवि‍काठी बजबैत रहैए।

कतौ ने कि‍छु छै दुनि‍याँमे

मन मानव गढ़ैत चलू।

मानव मनुख खरादि‍-खरादि‍

राति‍-दि‍न बनबैत चलू।

अपने हाथक खेल मीत यौ

हाथ-हथि‍यार बदलैत चलू।

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