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Tuesday, April 10, 2012

मनीष ठाकुर - विरह गीत


चेहरापर  पइन छन्हि,
आँखिक झील सन गहराइमे, किछु तँ जरूर छन्हि,
विरहक पीर छन्हि, वेदना गंभीर छन्हि
स्पष्टतः हुनकर आँखि, केकरो प्रतीक्षामे, अतीव अधीर छन्हि,
चेहरापर उदासीक स्पष्ट कइक चिन्ह छन्हि
किन्तु नहि, ई तँ कोनो आम वेदनासँ पूर्णतया भिन्न छन्हि,
साड़ी छन्हि अस्त व्यस्त
देखियौ तँ ! ओहो व्यस्त, बैसल छथि चिन्तनमे;
गहींर कोनो सोचमे अपने ओ डूबल छथि।
बात मुदा कहत के? किएक ओ मौन छथि?
मोनमे विचारक ई, केहेन छन्हि सतत प्रवाह?
लगैए ब्रह्मों नहिपाबि सकता मनक थाह
के छथि? कतए के? कोन गामसँ आएल छथि?
मन्दिरक आंगनमे, एहि पवित्र प्रांगणमे,
भगवानक पूजा लेल उद्यत की बैसल छथि?
दिव्य रूप शोभित ई रमणी जे बैसल छथि,
देव पूजा हुनकर तँ, मात्र एकटा बहन्ना छन्हि।
मन्दिरमे आबए के, अश्रुकेँ बहाबए के,
प्रियतम जे हुनकर परदेस जा कऽ बैसल छथि,
भगवानक नामपर हुनका बजाबए के
बैसल ओ सोचै छथि- प्रियतमक गप सभ,
पूछै छथि मने मन-
हमरा बतबियौ ने- सजा ई केहेन ऐह?
किएक ई विरक्ति ऐह, दाम्पत्य जीवन सँ ?
अपन एहि दासीकेँ किएक बिसरने छी?”
किछो नहि भेटै छन्हि, हुनका जबाब कतहु।
ई सभ तँ गप्प मुदा मनक भुलाबा छै, मात्र बहलावा छै।
मेनको तँ जिनकर सौन्दर्यसँ जरै छथि,
पारलौकिक सुन्दरिकेँ, छोडिकेँ बैसल ओ-
केहेन मनुख छथि, निर्दय आ निष्ठुर छथि।
पैसा कमाबए ले, प्रतिष्ठा पाबए ले,
जे किछु काज संभव छन्हि, करए लेल आतुर छथि।

किन्तु ओ ई  बिसरल छथि जे-
पत्नी आ अपन सुपुत्र, हुनकेपर निर्भर छथि।
मात पिताक प्रति हुनक कर्तव्य की?
मात्र अधिकारे टा! हुनकर मन्तव्य छन्हि!!
मानल अपन भविष्य, हुनके बनेबाक छन्हि
प्रतिष्ठा जे पएबाक छन्हि- मेहनति जरूरी छै।
अपने छथि दूर मुदा दिलसँ किएक दूरी छै।
हुनक एहीमे मान, यैह मात्र छै निदान- पैसा रहए गुलाम;
इंसां तँ मालिक छै- भौतिक सभ वस्तुक।
भौतिकता इंसांपर, शासन जे करतै तँ
ई तँ हेबाके छै, भौतिकता हंसैत छै, मानवता कनै छै।

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