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Tuesday, April 10, 2012

अपनेपर :: जगदीश मण्‍डल


अपनेपर

अपनेपर कनै छी
अपनेपर हँसै छी।
अपने दि‍स तकै छी
अपने नै देखै छी।
घुरि‍ पाछू जखन देखै छी
जुगक अनुकूल समाज देखै छी।
ऊपरे-ऊपर नीपल-पोतल
भीतरमे कंकाल देखै छी।
ओही समाजक बीच बसल
अपनो पुरुखाक इति‍हास पबै छी।
बि‍हि‍या-बि‍हि‍या बि‍हि‍यबि‍ते‍
ढहल-ढनमनाएल देखै छी।
नि‍श्चि‍त सीमा बीच गाम
नि‍श्चि‍त जाति‍ बान्‍हल छी।
टोलबैया कहि‍ नि‍श्चि‍त जाति‍क
पति‍आनी लागि‍ सटल छी।
सटल-सटल पति‍आनीक बीच
हटल-सटल सेहो पबै छी।
सटल-हटल आ कि‍ हटल-सटल
गामक थाह कहाँ पबै छी।
चौहद्दी बीच कत्तौ समाज
कत्तौ जाति‍ समाज कहबै छी।
कत्तौ-कत्तौ पुरुखक समाज
तँ कत्तौ सम्‍प्रदाय समाज बनै छी।
उठि‍ते नजरि‍ भूत-भवि‍ष्‍य
सि‍हरनसँ सि‍हरए लगैए।
अकारथ जि‍नगी देखि‍ पाबि‍
कुहरि‍ मन तुरछि‍ मरैए।
अगम-अथाह रूप समाजक
असथि‍र भऽ सागर कहबैए।
बर्खा बुन्नी बीच-बीच
ओला-पाथर बरि‍सा दइए।
पबि‍ते पाबि‍ पृथ्‍वी पसरि‍
धरि‍या-चालि‍ धड़ए लगैए।
उट्ठी-बैसी खेल खेलैत
मोइन-धार बनबए लगैए।
टूक सुपारी समाज कटि‍-कटि‍
टुकड़ी जाति‍ बनल छै।
टूक-टूक जाति‍क धरम
धर्म-मानव कात पड़ल छै।
कल्‍याणक पर्याय धर्म कहबए
कल्‍याणक दुश्‍मन बनल छै।
दृष्‍टि‍कूट सि‍रजि‍ दुर्ग-बीच
अलग चि‍त्त चौनाल खसल छै।
देखि‍-देखि‍ कुहरै छी।
कुहरि‍-कुहरि‍ सि‍हरै छी
सि‍हरि‍-सि‍हरि‍ सि‍सकै छी
सि‍सकि‍-सि‍सकि‍ ठुनकै छी
ठुनकि‍-ठुनकि‍ कनै छी
अपनेपर कनै छी
अपनेपर हँसै छी।
तँए कि‍ कोनो हारि‍ मानै छी
भाग्‍य-तकदीर सि‍रजै छी।
ज्‍योति‍षक ज्‍योति‍ पजारि‍-पजारि‍
कर्म-लेख लि‍खैत चलै छी।
जेकर जेहेन भाग्‍य बनल छै
तेहने तेकरा फल भेटै छै।
फँसि‍-फँसि‍ शब्‍दजाल कर्म
गीता गीत सुनबए लगै छै।
पढ़ि‍ गीता बौरा कि‍यो
चि‍न्‍तक बनि‍ चि‍न्‍तन करैए।
पागल कहि‍ पुक्की दए-दए
बौराहा रूप गढ़ैए।
सभ कि‍रदानी देखि‍-सुनि‍
मदनारी शि‍व कहबैए।
कि‍यो भांगि‍या-भि‍खारी‍ मानह
शि‍वदानी शि‍व कहबैए।
    ))((

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