Pages

Tuesday, April 10, 2012

सान-धार-धारा :: जगदीश मण्‍डल


सान-धार-धारा

अबैत जखन मनुखमे सान
शानसँ चलए लगैत।
एक दोसरमे सान चढ़ा
परि‍वारक शान बनबए लगैत।
चढ़ि‍ते सान परि‍वारमे
बर्खा-बून बनि‍ धरि‍याए लगैत
धरि‍आइत-धरि‍आइत धरि‍आ,
धारा बनि‍ धड़धड़ाइत चलैत।
अपन-अपन माटि‍क रसे
अपन-अपन सभ धार सजबैत,
संग मि‍लि‍ चालि‍-चलैत
नीक-अधला रहए बनैत-बि‍गड़ैत।
जइ बर्खाक जेहेन बून
तेहन से बनबैत धार
धार मि‍लि‍ धरा धार
अपना गति‍ये बदलैत धार।
जे धारा सि‍रजए गंगा
कमला कोसी ओ महानन्‍दा
ओ धार कहि‍या धरि‍ ठमकि
मानैत रहत फंदा?
   (())


No comments:

Post a Comment