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Tuesday, April 10, 2012

कुमार मनोज कश्यप - वसंती दोहा



गेंदा-गुलाब-पलाश संग, फूलल फूल कचनार।
चिहुकय आहटपर गोरी, आबि गेला पिया द्वार॥

भरल वसंती मासमे, पिया निर्दय बसल परदेश।
अल्हड़-मस्त वसंत, फेर बढ़ा देने अछि क्लेश॥

धरतीसँ मिलनक अछिव्याकुल भेल आकाश।
पिया विरहमे राति-दिन, पीयर पड़ल पलाश॥

रंग-अबीर-गुलालसँधरती  भऽ गेल  लाल।
गोरीक गालपर जेना, मलल चुटकी भरि गुलाल॥

एम्हर-ओम्हर मटकि रहल, पीबि कऽ भांग वसंत।
मन चंचल आइ  भऽ  रहल कि योगी की संत॥

पीबि कऽ भांग बसातो आब, लागल करय उत्पात।
धूड़ा उड़ा कऽ पड़ा गेल, देमय कान ने कोनो बात॥

सखि वासंती तोँहि  हुनका, जा  दय  दिहनु  संदेश।
जी भरि मलबनि रंग हम, भेटता पिया जखन जे भेष॥

ककरा सँ मोनक व्यथा कही, बुझत के मोर टीस ।
सुनि कऽ सभ   हँसबे करत, बनत के मन-मीत ॥

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