घोड़ मन (भाग-१)
घोड़ मन घोड़छान तोड़ि
चौदहो लोक भरमए लगल।
सातो-सोपान पताल टपि
सातो अकास उड़ए लगल।
समए संग जहिना बिलगैए
मिसरी-मक्खन ओ िनर्मल जल
हंसा उड़ि परमहंसा बनि-बनि
तहिना उड़ैत मन देह-स्थल।
स्थूल-सूक्ष्म बॅटि-बॅटि जहिना
दृश्य-भाव कहबैए।
एक्के आँखिये दुनू देखै छी।
अचेत मन भरमैए।
निकलि देह धारण करैए
आत्म-परमात्म दर्शन पबैए।
पबिते दर्शन मगन भऽ भऽ
सूर-तान, वीणा धड़ैए।
मथिते मथानी जहिना
घी-पानि बिलगए लगैए।
जले बीच दुनू समाएल
उठि एक सिर चढ़ए लगैए।
लोहिया चढ़ल आगि बीच जहिना
मक्खन नाचए लगैए।
काह-कूह फेकि-फेकि
पेनी बीच बैसि जमैए।
))((
घोड़ मन (भाग-२)
गोबर घोड़ाइते पानि जहिना
गोबराह रूप धारण करैए
गोबरेक गंध पसारि-पसारि
गोबरछत्ता बनि-बनि छितिराइए।
सुविचार कुविचारो तहिना
छने-छन छीन होइत चलैए।
गिरगिट रंग पकड़ि-पकड़ि
गिरगिटिया चालि चलए लगैए।
गिरगिटिया मनुक्खो तहिना
दिन-राति बदलैत चलैए
गीरगिटेक जहर सिरजि-सिरजि
बीख उगलैत चलैए।
भेद-कुभेद मर्म बिनु बुझने
देखा-देखी ओढ़ैत चलैए
ओढ़ि-ओढ़ि ओझरा-पोझरा
डुबकुनिया काटि मरैए।
गाछक ऊपर डारि बीच जहिना
बॉझी अपन बास करैए
झड़मनुखो मनुख बीच तहिना
उपरे-ऊपर चालि मारैए।
सात समुद्र बीच मनुख
दसो दिशाक दर्शन पबैए
चीन्हि-पहचीन्हि केने बिना
जिनगीक बाट पकड़ैए।
))((
घोड़ मन (भाग-३)
प्रकृतोक तँ प्रकृत गजब छै
सुगंध-कुगंध फूल खिलबैए।
सु-पारखी सुरखि-परखि
कु-पारखी दिन-राति मरैए।
परखिनिहारो परखि कहाँ
परखि-परखि बिलगा चलैत
धार-मझधार बीच
पिछड़ि-पिछड़ि नहिये खसैत।
बेबस मन बहटि-बहटि
सीरा-भट्ठा बिसरए लगैत
जान बॅचबैक धरानी कोनो
लपकि-लपकि पकड़ए चाहैत।
सत्ताक भत्ता छिड़िआएल छै
फानी, फनकी बनि लागल छै।
चिड़चिड़ीक फड़ जकाँ
चूभि पएर टीको नोछड़ै छै।
बिनु पाँखिक हंसा जहिना
तीनू लोक विचरण करैए।
दिन-रातिक भेद बूझि-बूझि
अज्ञान-ज्ञान-सज्ञान बनैए।
))((
घोड़ मन (भाग-४)
आँखि मिचौनी पाश बैसि
ब्रह्म-जीव माया खेलैए।
समए पाबि तहिना ने
अज्ञानो-सज्ञानक चालि चलैए।
होइत आएल आदियेसँ
अज्ञान-ज्ञान बीच संघर्ष
ताधरि चलिते रहत
जाधरि अन्हार इजोत बनत।
पछुआ छोड़ सम्हारि-सम्हारि
अगिला पकड़ैत चलू।
अतीत केर स्मृति बना
समद्रष्टा बनैत चलू।
एक छोड़क बाट देखि
भूत-वर्तमान देखैत चलू।
भविष्य तँ भविष्ये छी
भविष्य-वर्तमान बनबैत चलू।
डेंगी नाह जहिना यात्री
धार पार करैए।
डगमगाइत देह मड़मड़ाइत मन
जीवन धाम पहुँचैए।
))((
No comments:
Post a Comment