Pages

Saturday, April 7, 2012

उड़ि‍आएल चि‍ड़ै :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल


उड़ि‍आएल चि‍ड़ै

उड़ि‍आएल चि‍ड़ैक ठेकाने कोन
उड़ि‍ कतऽ जा बास करत।
भरि‍ पोख घोघ भरतै जतऽ
दि‍न-राति‍ जा रास करत।
ओहन चि‍ड़ैक आशे कोन
जे बि‍सरि‍ जाएत डीहो-डावर।
छोड़ि‍-छाड़ि‍ सभ कि‍छु अपन
रखैत मन खाली स्‍मृति‍ पूर्वक।
ओहन स्‍मृति‍ स्‍मृते की
जे मने-मन घुरि‍आइत रहैत।
पसरि‍ नै पबैत जे कहि‍यो
तरे-तर खि‍आइत रहैत।
ताड़ सदृश छुबए अकास
कलसि‍ कहाँ डारि‍ बनबैत।
रसगर फलक चरचे की
सोनाएल-सकताएल फड़ैत।
नढ़ि‍ओ-कौआ कहाँ पूछै छै
कहाँ पूछै छै बालो-बोध।
भरि‍सक सभ बि‍सरि‍ गेल
छि‍ऐ ओहो कोनो गाछेक फल।
वृक्षक शोभा तखन बढ़ै छै
फल-फूलसँ जखन लदै छै।
शीतल-सुन्‍दर हवा सि‍रजि‍‍
बाट-बटोहीक रच्‍छा करै छै।
     ))((

No comments:

Post a Comment