परदेशी
नै बूझि पेलौं अखन धरि
दाही-रौदीक औरुदा कते।
एक दिन जाड़ माघक बीतने
उनतीस दिन पड़ाएत जते।
बारह मासक साल बनै छै
एक करोटिया ऋृतुओ लइ छै
केंचुआ छोड़ि नव रूप पाबि जेना
नव जीवनक नूतन चालि धड़ै छै।
अपन-अपन रूप गढ़ि-गढ़ि
नव सृष्टिक बाट धड़ै छै
नव सिरजि नव युगक
नव विचारक लोक गढ़ै छै।
सृष्टिक भीतर सृष्टि सिरजि
मौसमक सुर-तान भरै छै।
पबिते हवा श्रृंगार सौरभक
ठठा-ठठा मुसकान भरै छै।
पेटक खातिर लुटा रहल छी
इज्जत-आबरू ओ सन-मान
हारल नटुआक संग पकड़ि
गाबै छी प्रभाती विहान।
देखए पड़त मातृभूमि मिथिलाकेँ
माटि-पानि ओ वसात।
अंगेजि अंग जखन बनब
देखि पाएब सोन्हगर अकास।
जे कहियो सातम अकास चढ़ि
मुरलीक तान भरैए
कुरेड़क कुरहरि कटि-कटि
दूरेसँ ढोल बजबैए।
))((
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