Pages

Wednesday, April 11, 2012

बीआ :: जगदीश मण्‍डल


बीआ

बीआ खसए जेहेन धरती
तेहने तँ गाछो उगैत
रौद-बसातक सह पाबि‍
संगे-संग चलबो करैत।

लइते जन्‍म धरतीमे
डेग उठा चढ़ए अकास
काले-क्रमे घुसुकि‍-घुसुकि‍
दुनू बीच करए-चाहए बास।

सि‍रजित‍ भऽ स्‍वयं सि‍रजक बनि‍
हँसि‍-खि‍ल बि‍लहए सनेस
भक्‍तक आह सुनि‍ जना
पकड़ि‍ भगवन सि‍नेही भेष।

चक्रक चक्का पकड़ि‍ चुहुटि‍
लगबए आस जि‍नगी केर
धरती-अकासक ओर दू
नै‍ अछि‍ सोझ बाट भूमा केर।

धार अनेक धारी अनेक
वि‍शाल वृक्ष धरती केर
खोलि‍ हृदए सेवा ि‍नमि‍त
अलि‍सा टगैत प्रेमीपर।

दुर्ग अनेक ढाल अनेक
दुर्गम बाट धरती केर
शक्‍ति‍सँ शक्‍ति‍ सटि‍
सि‍रजै शक्‍ति‍ शक्‍ति‍ केर।

अकास बीच देखि‍ सदति‍
सूर्ज संग-संग चान

अनेक तरेगन बीच एक
गाबए सदा गीत तानि‍।

खेल अजीव एे‍ सृष्‍टि‍क
सि‍नेही सि‍नेह गुड़काबए गेन
हारि‍-जीत‍क मान न माने
बना रखए सदति‍ प्रेम।

जोग भोग सि‍रजए सदए
एक-दोसराक वि‍परीत चलए
दू पाटनक मध्‍य-बीच
सि‍रजि‍ सृष्‍टि‍ आगू बढ़ए।
))((

No comments:

Post a Comment