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Tuesday, April 10, 2012

घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍ :: जगदीश मण्‍डल



घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍

घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍,
घर-घराड़ी गेले अछि‍।
गाम-घर उजरि‍‍-उपटि‍
नाओं-ठेकान बि‍सरले अछि‍।
घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍।
बेटा-पुतोहु नि‍कलि‍ घरसँ
देखलक शहर-बजार।
ओ कि‍ फेरि‍ घुरि‍ घर औत
आकि‍ घुमत हाट-बजार।
छाती मुक्का मारि‍ लि‍अ
अपन जि‍नगी सम्‍हारि‍ लि‍अ।
नै तँ अपनो बुड़ले अछि‍
घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍।
जइ बच्‍चाकेँ भेँट नै हेतै
सालक-साल माए-बाप।
दादा-दादीक कथे कि‍ कहब
मोबाइलेसँ करत क्रि‍या-कलाप।
कुल-खनदान सभ गेलै अछि‍
घरक लौटि‍या बुड़ले अछि‍।
अंग्रेजी पढ़ि‍ अंग्रेजि‍या बनि‍-बनि‍
पप्‍पा-मम्मी आनत घर।
बाप-दादाक कि‍ भेद ओ बुझत
अड़ि‍-अड़ि‍ बाजत नि‍डर।
आबो कहू भाय, केना नै डुमतै
घरक लौटि‍या केना नै बुड़तै।
        ))((


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