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Sunday, April 8, 2012

चौरी धानक कटनी :: जगदीश मण्‍डलक कवि‍ता


चौरी धानक कटनी

नवम्‍वर-दि‍सम्‍वरक शीत ओस
पाबि‍ जनवरी गेल पलाए।
दसतारक सेहो चलैत
तरे-तर जाड़ गेल जुआए।
ऊपर खेतक धान कटि‍-कटि‍
गहुमक बाउग चलए लगल।
नार-पात समटैसँ लऽ कऽ
दाैन-दोगौन हुअए लगल।
राति‍-दि‍नक सीमा तोड़ि‍
जी-जानसँ सभ भीड़ल।
जते-काम तते दाम
हँसी-खुशी भेटए लगल।
गहुमो बाैग भेल,
धानो दाैन भेल,
टालक पेनी सेहो छनल।
टीनक मुँह काटि‍-काटि‍
उसनि‍याक बरतन बनल।
एक्के धान उसनलापर
उसना-अरबाक खाढ़ बनैत।
चौरीक कटनी पछुआएले अछि‍।
अधखि‍ज्‍जू खेत बाकि‍ये अछि‍।
सी-सी सि‍हकी पछबा धेलक
पूर्वो भांज पुरए लगल।
सुगम-सगुण पाबि‍-पाबि‍
शीतलहर चलए लगल।
अकाससँ पताल धरि‍
कोने-सान्‍हि‍ये ठंढ़ पकड़लक।
ठरल पानि‍ ठाढ़ भऽ तपस्‍वी
सीस धानक हि‍आबए लगल।
एक तँ सि‍ल्‍लीक चाभल,
दोसर पानि‍ अकुराएल।
सड़ि‍-सड़ि‍ सि‍स घार खसौने
पानि‍क तर सेहो नुकाएल।
पड़ल छगुन्‍ता ठाढ़ तपस्‍वी
हँसुआ नेने पानि‍मे ठाढ़।
छोड़ि‍ देब कायरता होएत
लगले केना मानि‍ लेब हारि‍।
जाबे प्राण बॅचल अछि‍
ताबे केना पीठ देखाएब।
थोड़-थोड़ आश पकड़ि‍
आशावान जरूर कहाएब।

))((

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