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Tuesday, April 10, 2012

स्व. कालीकांत झा ’बूच’ - विरक्ति



क्षण भंगुर संसार सजनि गय एहि ठाँ दुःखक पहाड़ भरल अछि,
नोरक निरझर धार सजनि गय उमड़ल बनल दहाड़ चलल अछि ।
बचा सकब कहू कोना आनकेँ, हम तँ अपने डूमि रहल छी ।
हँसा सकब कहू कोना आनकेँ, सिंगड़हार भऽ चूबि रहल छी ।
सजनि गय हिस्सक सागर खार बनल अछि, नोरक........।

मृगी जकाँ हम काँपि रहल छी, झाँखुरसँ तन झाँॅपि रहल छी।
देखि-देखि संधान सायकक, आयुक छाँटी मापि रहल छी।
करब कोना पथपार सजनि गय ठाम-ठाम सौतार भरल अछि,
नोरक .....।।

विरहक शून्य सुदूर देशमे, दिवसक कठिन करेज जड़ल अछि।
रजनी अछि जोगिनीक वेषमे, आंचर तर लुत्ती पसरल अछि।
चिर-वियोगक भार सजनि गय लऽ कऽ कहार चलल अछि,
नोरक ....।।


विशेष:- स्व. कवि एहि कविताक रचना सन् १९९० ई. मे अप्पन अर्धांगिनीक मृत्युक वियोगमे कएलनि ।

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