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Saturday, April 7, 2012

पौरुष :: जगदीश मण्‍डल


पौरुष

पौरुष पुरुषत्‍वक सुप्‍त सुअन
प्रस्‍फुटि‍त भऽ पुष्‍पि‍त बनैए।
चढ़ि‍ पवन रथ भरमि‍ अकास
सि‍ख-नख रूप सजबैए।
पाथरसँ नि‍कलि‍-नि‍कलि‍
शि‍खर नीर धारण करैए।
झड़-झड़ करति‍ झहरि‍-झहरि
हृदए पाताल पकड़ैए।
एक जल पाथर पग पकड़ै
दोसर पकड़ए शून्‍य अकास।
पबि‍ते प्रेमी हृदए प्रेम मि‍लि‍
जूरशीतल पावनि‍ प्रकाश।
सि‍नेह सि‍क्‍त हृदए सटि‍
ससरि‍-ससरि‍ ससड़ए सागर।
तरोट-उपरोट माटि‍ मि‍लि‍
हृदए सि‍नेह सजबैत गागर।
माटि‍ जेना सागर सजै छै
पातालो उमड़ै तहि‍ना छै।
हवो कहाँ मानैत छान
पकड़ि‍ बॉहि‍ बि‍चड़ए लगै छै।
जखने तीनू सम बनै छै
पवन पावक पकड़ै छै।
पानि‍यो कहाँ पछुआए चाहैत
त्रि‍वेणीक धुन धड़ै छै।
धुने धूनि‍-धूनि‍ धुर सि‍रजि‍
चौड़गर बाट बनबै छै।
लट-पट, सट-पट करैत चलैत
सीमाक पाड़ पकड़ै छै।
टपि‍ते टपान सीमा केर
नव दुनि‍याँ झलकै छै।
पयस्‍वि‍नी संग मि‍लि‍ वसुधा
पाथर पहाड़ सजबै छै।
अनगि‍नि‍त दुनि‍याँ बनल छै
ब्रह्म-जीव माया सजल छै।
अनेकानेक जीव ओ ब्रह्म
योगमाया सि‍रजि‍ सजबै छै।
बनि‍ते संगी संग चलै छै
अनेकानेक दर्शन पबै छै।
कीड़ी-फति‍ंगी, झाड़-झूड़
सुन्‍दर शीतल सुख पबै छै।
हरि‍यर-हरि‍यर वन सजल छै
कोमल-कि‍सलय सजल-धजल
जमुना धार बीच बहै छै।
माटि‍ बैसि‍ सौभर ऋृषि‍
राति‍-दि‍न तपस्‍या करै छै।
बाल्‍मीकि‍, भारद्वाज, ऋृगी
नि‍च्‍चाँ नजरि‍ नि‍हारि‍ रहल।
देखि‍-देखि‍ धड़नि‍ धारण
मने-मन तड़पि‍ रहल।
पबि‍ते एक-दोसर-तेसर
चारि‍म संग दौग-दौग
पाँचम केर पछुअबै छै
संग मि‍लि‍ पाँचो नाचि‍-गाबि‍
पंच-तत्‍व लहरि‍ मि‍लबै छै।
पाँच तत्व नि‍रमि‍त संसार
संग मि‍लि‍ सभ खेलाइए।
उदय-अस्‍त देखैत-सुनैत
अपनेमे समाइए।
पाँच मि‍लि‍ समाज बनि‍
पंच परमेश्वर कहबै छै।
वैतरणी तरणि‍-तरणि‍
सि‍र-शि‍व गंग चढ़ै छै।
दुनि‍याँक रूप पकड़ि‍-पकड़ि‍
ऋृषि‍-मुनी योद्धा खि‍ंचैत
दलकल-सलकल पि‍छड़ि‍-पि‍छड़ि‍
छाती मुक्का मारि‍ चलैत।
मुक्काे केर तँ अजीब कि‍रदानी
कि‍यो अपने मारए कि‍यो दोसरात
झपटि‍ आँखि‍ पकड़ि‍ बॉहि
धरती धड़बैत तेसरात।
     ))((





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