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Sunday, April 8, 2012

झूठ-साँच :: जगदीश मण्‍डल


झूठ-साँच

झूठ-साँचक साँच कते
उत्तरी-दछि‍नी ध्रुव जते।
कोनो चलैत शुभ्र समीर संग
कोनो चलए वोन-झाड़क।
कोनो चलए धरती-धरातल
कोनो चलए शब्‍द जालक।
सत् बनबैले एक झूठ
हजार-हजार चालि‍ धड़ैत।
मुदा एक साँचक शक्‍ति‍
सदए ढनमनबैत रहैत।
जहि‍ना घनघोर घटाकेँ
हवा उड़बैत रहैए।
तहि‍ना देखि‍ते बोनैया
लोकक सुन-गुन पबैए।
झूठ-साँच कहब ककरा?
जे शब्‍द हजारो बेर
बजलो उत्तर ठामहि‍ रहत।
मुदा ओ जे बेर-बेर
सभ बेर बदलैत रहत।
रूप सजि‍ नव श्रृंगार कऽ
मनकेँ मोहैत रहत।
शुभ्र ज्‍योति‍ पड़ि‍ते सदति‍
चेहराक रंग बदलै छै।
मुँह खोलि‍ कि‍अए ने
झूठक डाकनि‍ दइ छै।

साँचक पजरे-पजरा
चलि‍-चलि‍ जान बचबैए
कतौ छाँह कतौ ठमकि‍
मायापुरी सि‍रजैए।
   ))((

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