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Tuesday, April 10, 2012

रूपा धीरू - प्रसव–पीड़ा



प्रसवपीड़ासँ छटपटाइत ओ
अइ कोलासँ ओइ कोला करैत
बोदरि छलि पसेनासँ,
किछु कालक पश्चात चौरीमे हलचल भेलैक
आ प्रसन्नताक लहरि पसरि गेलैक
ओकर बाप हाथमे राखल बहिंगाकेँ
खुशीसँ उछालि फेकलक दूर कऽ
ओ बड़ पोरगर नेनाकेँ जन्म देने छलि।
ओ बड़ प्रसन्न छल
ई सोचि
जे काल्हिसँ ई हम्मर
बाँहि पूरत, पँचपज्जी बोझ उठएबाक
सामर्थ राखत,
तखन फागुनेमे बेसाह लगबाक डर नहि रहत
प्रात भने गिरहतक खरिहानमे बोनि लेबाक लेल
बड़ हुलसगर मोनसँ पहुँचल ओ
हुनकर दलानपर बड़कीटा मोटर चमचमाइत छलनि
पता चललै जे गिरहतक पुतौहुकेँ
सातम महिना छियनि
दड़िभंगा जा रहल छथि
दुस्साहस कऽ ओ अपन बुधनी,
आ गिरहतक पुतौहुक तुलना कएलक
बहिंगा ठामे गाड़ि देलक बोझपर
ओ गिरहतकेँ नेहोरा करऽ लागल
मालिक परसौतीक लेल दालिचाउर
बड़ जरूरी छै
कने, बोनि ........
की बजलेँ ?”
ओ गरजि उठलाह— “सार नहितन
जतराक बेरमे तोँ .....
अपने भनसिया जकाँ
बूझैत छिहीक ?”

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